पुलिस सुधार विकसित भारत के लिए जरूरी

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भारत में पुलिस सुधारों के लिए कई समितियों का गठन किया गया जिनमें पद्मनाभैया समिति(2000) व मलिमठ समिति(2002-03) के सुझाव उल्लेखनीय है। पुलिस सुधारों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने 2006 में पूर्व पुलिस प्रमुख प्रकाश सिंह की याचिका पर सात मुख्य निर्देश दिए थे जो सुधारों की दिशा में एक बड़ा लेकिन अपर्याप्त कदम रहा।

 

भारत की स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी पुलिस व्यवस्था यथावत बनी हुई है। इसमें नाममात्र के ही सुधार हुए हैं जो कि विश्व स्तर के कही से भी नहीं है। ना ही वर्तमान भारत के सामाजिक तानेबाने को नियंत्रण के लिए उचित। किसान आंदोलन से लेकर शाहीनबाग घटना, असामाजिक तत्वों द्वारा पुलिस पर पथराव, भीड़ का आये दिन अनियंत्रित हो जाना जैसी कितनी ही घटनाएं है जिसके सामने वर्तमान पुलिस व्यवस्था अपने आप को असहाय महसूस करती है। उसमें प्रमुख कारण पुलिस कानून का अंग्रेजो के समय का होना व पुलिस बल की अत्यधिक कमी के कारण।

पुलिस विभाग सबसे पहले तो बल की कमी से परेशान हैं। 12 घंटे से ज्यादा पुलिस जवानों को ड्यूटी पर रहना पड़ता है जो कि मानव अधिकारों के खिलाफ है। 2006 में पुलिस सुधार के लिए भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र व सभी राज्यों को महत्वपूर्ण दिशानिर्देश दिये थे लेकिन आज तक अधिकांश राज्यों ने इन सुधारों को लेकर कोई विशेष गंभीरता नहीं दिखाई है। एक ऐसे समय में जब हम विकसित भारत के लक्ष्य को लेकर कार्य कर रहे और ऐसे में पुलिस व्यवस्था में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं करना, इस लक्ष्य को पूर्णतः प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अब जब आपराधिक कानूनों में सुधार कर नये कानून लागू हो चुके हैं तो पुलिस में भी वर्तमान भारत की सामाजिक चुनौतियों के अनुसार सुधार होना चाहिए।

मुख्यतः पुलिस का काम होता है अपराध का अन्वेषण, विधि व्यवस्था से जुड़े दायित्व, सूचनाएं जुटाने के साथ पेट्रोलिंग भी करनी पड़ती है। पुलिसकर्मियों को नेताओं, मंत्रियों, न्यायमूर्तियों, वीआइपी ड्यूटी और त्योहारों व विशेष आयोजनों के दौरान व्यवस्था की देखरेख में भी लगाया जाता है। इन कामों के साथ पुलिसकर्मियों को न्यायलयों से जुड़े जटिल कार्य भी करने होते हैं।

वर्तमान में पुलिस बल के साथ एक ओर गंभीर समस्या फिटनेस को लेकर है। काम के तय घंटे न होने के कारण से फिट और स्वस्थ नहीं हैं अधिकांश पुलिस अधिकारी, वहीं इस तरह की समस्या के कारण ही आम लोगों के साथ खराब व्यवहार से बिगड़ी पुलिस की छवि। उनके खराब प्रदर्शन व व्यवहार के पीछे उनका मानसिक स्वास्थ्य व तनाव भी बड़ा कारण है जो निरंतर ड्यूटी करने के कारण हो जाता है।

पुलिस सुधार व उससे संबंधित सभी आयोग, सिफारिशें, समितियां, न्यायिक दिशानिर्देश पर तथ्यपरक जानकारी देखे तो सबसे पहले धर्मवीर आयोग(जिसे भारत का सबसे पहला राष्ट्रीय पुलिस आयोग भी कह सकते है।) पुलिस सुधारों को लेकर सबसे पहले 1977 में धर्मवीर की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया गया। इसे राष्ट्रीय पुलिस आयोग कहा गया। चार वर्षों में इस आयोग ने केंद्र सरकार को आठ रिपोर्टें सौंपी थी, लेकिन इसकी सिफारिशों पर अमल नहीं किया गया। इस आयोग ने पुलिस सुधार के संबंध में प्रमुख सिफारिशों में हर राज्य में एक प्रदेश सुरक्षा आयोग का गठन, जांच कार्यों को शांति व्यवस्था संबंधित कामकाज से अलग किया जाए, पुलिस प्रमुख की नियुक्ति के लिए विशेष प्रक्रिया अपनाई जाए, पुलिस प्रमुख का कार्यकाल तय किया जाए व एक नया पुलिस अधिनियम बनाया जाए। लेकिन इन सिफारिशों पर आजतक ठीक से ध्यान भी नहीं दिया गया व ना ही अमल किया गया।

इसके बाद भारत में पुलिस सुधारों के लिए कई समितियों का गठन किया गया जिनमें पद्मनाभैया समिति(2000) व आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के लिए मलिमठ समिति(2002-03) के सुझाव उल्लेखनीय है। 1998 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर जूलियो रिबेरो की अध्यक्षता में एक अन्य समिति का गठन किया गया था। इसके बाद पुलिस सुधारों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने 2006 में पूर्व पुलिस प्रमुख प्रकाश सिंह की याचिका पर सात मुख्य निर्देश दिए। जिनमें;

  1. राज्य सुरक्षा आयोग का गठन ताकि पुलिस बिना किसी दबाव के काम कर सके,
  2. पुलिस शिकायत प्राधिकरण बनाया जाए, जो पुलिस के खिलाफ आने वाली गंभीर शिकायतों की जांच कर सके,
  3. तीसरा थाना प्रभारी से लेकर पुलिस प्रमुख तक का एक स्थान पर दो वर्ष का कार्यकाल,
  4. नया पुलिस अधिनियम लागू किया जाए,
  5. अपराध की विवेचना और कानून व्यवस्था के लिए अलग पुलिस की व्यवस्था की जाए,
  6. पुलिस उपाधीक्षक के पद से नीचे के अधिकारियों के स्थानांतरण, पोस्टिंग, पदोन्नति और सेवा से संबंधित अन्य मामलों को तय करने के लिए राज्य स्तर पर पुलिस स्थापना बोर्ड बनाया जाए व
  7. सातवां निर्देश केंद्र सरकार को सुझाव दिया गया कि वह केन्द्रीय स्तर पर एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग बनाए।

इसका काम केन्द्रीय पुलिस संगठनों के प्रमुख के चयन और नियुक्ति के लिए एक पैनल तैयार करना था, जिनका न्यूनतम कार्यकाल दो वर्ष का हो। लेकिन राज्यों ने इन दिशानिर्देशों पर आजतक ठीक से ध्यान नहीं दिया व इन सुधारों को येनकेन तरीकों से शक्तिहीन बनाने के ज्यादा प्रयास किये।

पुलिस के कार्य पद्धति पर हर बार प्रश्न उठाए जाते हैं लेकिन हमारा समाज व राजनीतिज्ञ पुलिसकर्मियों पर काम के बोझ के विषय में आवाज नहीं उठाते। ना ही अधिकांश राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र में भी कभी इस विषय पर विशेष घोषणा नहीं करते। वह पुलिस जो एक दिन में बारह घंटे से ज्यादा काम करती हैं। जिन्हें माह में एक बार भी वीक आफ नहीं मिलता। मुश्किल से मिलने वाली छुट्टी के दिन भी अक्सर पुलिस को फिर काम पर बुलाया जाता है ! वहीं भारत में हर सप्ताह दो त्यौहार, पर्व या फिर बड़े आयोजन होते हैं जिसे संभालने की जिम्मेदारी पुलिस की होती है। ऐसे में पुलिसकर्मियों की कार्यप्रणाली व कार्य में गुणवत्ता कैसे आऐगी ?

आखिरकार पुलिस भी मानव है कोई मशीन नहीं। समाज व सरकारों में बैठे जिम्मेदार लोगों को इस विषय में गंभीरता से चर्चा व चिंतन करना चाहिए। अक्सर सवाल उठते हैं कि जब पुलिस की जवाबदेही तय करने के लिए राजनीतिक दल और समाज हमेशा मुखर रहता है तो एक कर्मचारी के तौर पर उनको मानवीय अधिकारों से वंचित रखे जाने के खिलाफ कहीं से कोई आवाज क्यों नहीं उठती है। स्वतंत्रता के बाद से ही पुलिस सुधारों की बात हो रही है। 1996 में पूर्व पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह पुलिस सुधारों की मांग लेकर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे थे लेकिन आज भी धरातल पर स्थिति में परिवर्तन नहीं आया।

आखिरकार पुलिस व्यवस्था में काम कर रहे लोग भी तो मानव है। उनका भी परिवार होता है। उन्हें भी अपने बच्चों के साथ के छुट्टी मनाने का अधिकार है लेकिन सरकार व राज्यों ने इस ओर कोई सुधार नहीं किया। अब उचित समय है कि जल्द से जल्द पुलिस व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन किया जाए और पुराने पुलिस कानून के स्थान पर नया पुलिस कानून बने। साथ ही पुलिस व्यवस्था में काम कर रहे नागरिकों के गरिमामय जीवन के लिए भी जरूरी कदम उठाये जाए।


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Bhupendra Bhartiya

Bhupendra Bhartiya is an accomplished advocate and law faculty member from Dewas, Madhya Pradesh, with an impressive academic background in law (LL.B (Hons.), LL.M, M.Phil). A prolific writer, he has a deep interest in contemporary issues, poetry, and satire, with over 200 satirical pieces published in leading national and international publications like Nai Dunia, Dainik Jagran, and Amar Ujala. Additionally, his contributions include over two dozen published poems and book reviews, reflecting his versatile literary talent.

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