डॉनल्ड ट्रम्प द्वारा जो-बाइडन के स्थान पर अमेरिकी राष्ट्रपति का कार्यभार संभालने के बाद से लगातार चौकाने वाले खुलासे हो रहे हैं। कार्यभार संभालते ही ट्रंप ने यूएसएआईडी के अंतर्गत दी जाने वाली आर्थिक सहायता पर 90 दिन की रोक की घोषणा इस आशय के साथ की, कि इस अवधि में उनका प्रशासन इसकी समीक्षा करेगा। राष्ट्रपति ट्रंप का यह निर्णय कोई अनायास नहीं है। इसे उनके चुनाव प्रचार में अमेरिकी सरकारी एजेंसियों और विभागों का आकार घटाने के वादे को पूरा करने के रूप में देखा जा सकता है। ट्रम्प लगातार यह आरोप लगाते रहे हैं कि अमेरिका के सरकारी विभागों के अनेकों कर्मचारी ‘डीप स्टेट’ का हिस्सा हैं और इनके ऊपर अमेरिकी जनता की गाढ़ी कमाई खर्च नहीं होनी चाहिए। इसी नीति के तहत ट्रम्प प्रशासन ने अमेरिकी सरकारी कार्यदक्षता विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी) डीओजीई का गठन करते हुए इसकी कमान उन्हीं एलन मस्क को सौंपी है जिन्होंने राष्ट्रपति चुनावों में लगभग 130 मिलियन डॉलर (1128 करोड़ रुपये) खर्च किए। डीओजीई के इस खुलासे ने कि अमेरिकी सहायता एजेंसी यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) ने भारत में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए 21 मिलियन डॉलर (182 करोड़ रुपये) तथा बांग्लादेश में राजनैतिक परिदृश्य के स्थायित्व के लिए 29 मिलियन डॉलर (251-करोड़ रुपये) की दी जाने वाली मदद को रोक दिया है।
इस घोषणा के बाद होने वाले दावे और खुलासे भारत को झकझोरने वाले हैं। ट्रम्प स्वयं प्रश्न करते हैं कि, “आखिर मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए अमेरिका द्वारा भारत को 21 मिलियन डॉलर की सहायता की क्या आवश्यकता थी”? और फिर स्वयं उसका जवाब भी देते हैं कि, “शायद वे (बिडेन प्रशासन) भारत में किसी और को निर्वाचित कराना चाहते थे! अर्थात भारतीय चुनावों में अमेरिकी हस्तक्षेप का स्पष्ट भंडाफोड़ वहाँ के नवनियुक्त राष्ट्रपति ने किया! नवगठित डीओजीई के मुखिया एलन मस्क ने तो यूएसएआईडी को आपराधिक संगठन बताते हुए यहाँ तक कह दिया कि “इसके अंत का समय आ गया है”। अमेरिकी विदेश विभाग के पूर्व अधिकारी माइक बेंज के दावे तो रहे-सहे संदेह को दूर कर देते हैं, जिसमें वह कहते हैं, अमेरिका ने यूएसएआईडी तथा थिंक टैंकस जैसे संस्थानों के माध्यम से भारत और बांग्लादेश जैसे अनेकों देशों की अंदरूनी राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप किया। इसके लिए मीडिया, सोशल मीडिया, तथा विरोधी आंदोलनों को आर्थिक मदद भी प्रदान की गई।
अमेरिका समर्थित एजेंसियां तथा संस्थाओं ने दूसरे देशों के चुनावों को प्रभावित करने, वहाँ की सरकारों को अस्थिर करने, वहाँ के प्रशासनों को अमेरिका के रणनीतिक हितों के साथ जोड़ने के लिए लोकतंत्र को बाहरी आवरण के रूप में इस्तेमाल किया। यूएसएआईडी, थिंक टैंकस, तथा फ़ेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब, ट्विटर जैसी प्रमुख कंपनियों ने वर्ष 2019 में भारतीय राजनैतिक नेतृत्व एवं सत्ताधारी दल के खिलाफ विमर्श स्थापित करने का प्रयास किया। बेंज ने दावा किया कि अमेरिका के विदेश विभाग ने फ़ेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब, ट्विटर आदि कंपनियों पर मोदी समर्थित सामग्री को रोकने का दबाब बनाया। सत्ताधारी दल अपने मतदाताओं तक न पहुँच सके इसके लिए उन्होंने व्हाट्सएप पर मैसेज फॉरवर्ड करने को 2019 में सीमित करने के प्रयास का जिक्र किया।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के सदस्य संजीव सान्याल ने USAID को “मानव इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला“ कहा है। इस रहस्योद्घाटन से जहां भारत में सनसनी फैलनी स्वाभाविक थी, वहीं अनेकों प्रश्न भी खड़े हुए हैं और जनमानस में शंकाएं भी पैदा हुई हैं। क्या विदेशी सरकारें एवं शक्तियां भारत के चुनावों को प्रभावित करने का षड्यन्त्र करती रही हैं? यदि इसमें सत्यता है, तो फिर ये षड्यंत्रकारी और इन्हें खाद-पानी देने वाली शक्तियां कौन हैं? इनका उद्देश्य क्या है? देशवासी यह अवश्य जानना चाहेंगे कि आखिर यह सहायता प्राप्त करने वाले संस्थान कौनसे हैं? इस सहायता को अन्य किस-किस उद्देश्यों के लिए प्रयोग किया गया? प्रश्न यह भी उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत सरकार इससे अनभिज्ञ थी? यदि ऐसा है तो भारत की सुरक्षा एजेंसी आखिर कर क्या रही थीं?
यूं तो यूएसएआईडी से सहायता प्राप्त करने का भारत का लंबा इतिहास है। आजादी के बाद अमेरिका से मिली आर्थिक सहायता के जरिए भारत में 8 कृषि विश्वविद्यालय, पहला भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान यानी आईआईटी खड़गपुर और 14 क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित किए गए। साथ ही टीकाकरण, परिवार नियोजन, एड्स, टीबी, पोलियो जैसी बीमारियों की रोकथाम के लिए भी यूएसएआईडी की मदद ली गई। परंतु समय और आर्थिक मदद में वृद्धि के साथ ही यूएसएआईडी द्वारा थोपे जाने वाली अमेरिकन शर्तों की संख्या भी बढ़ती गई। वर्ष 2004 में भारत सरकार ने यह साफ कर दिया कि यूएसएआईडी के तहत ऐसी कोई भी वित्तीय सहायता नहीं ली जाएगी, जिसके साथ अमेरिका की शर्तें भी आएं। इसके बाद से मदद में कमी आती गई।
साल 2001 में भारत के लिए यूएसएआईडी फंड की उपलब्धता 208 मिलियन डॉलर (लगभग 1800 करोड़ रुपये) की थी। साल 2023 में यह 153 मिलियन डॉलर (लगभग 1300 करोड़ रुपये) हो गई और साल 2024 में 141 मिलियन डॉलर (लगभग 1200 करोड़)। हाल ही में कुछ ऐसी भी रिपोर्ट्स प्रकाशित हुई हैं जिनमें बताया गया कि यूएसएआईडी से हेल्पिंग हैंड फॉर रिलीफ एंड डेवलपमेंट नामक ऐसे संगठन की फंडिंग की गई, कथित तौर पर जिसके संबंध आतंकवादी संगठन जमात-उद-दावा से जुड़े चैरिटेबल और पॉलिटिकल समूहों से हैं। कथित तौर पर अक्टूबर 2021 में यूएसएआईडी से हेल्पिंग हैंड फॉर रिलीफ एंड डेवलपमेंट को 1.1 लाख डॉलर (लगभग 96 लाख रुपये) की आर्थिक मदद दी गई। यह और भी आश्चर्यचकित करने वाला है कि यह मदद अमेरिकी कांग्रेस के 3 सदस्यों द्वारा आपत्ति जताए जाने के फलस्वरूप दी गई। वर्ष 2024 में यूएसएआईडी को 44.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर आवंटित किये गए जो कुल अमेरिकी संघीय बजट का केवल 0.4% है लेकिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा ट्रैक की गई समस्त मानवीय सहायता का 42% हिस्सा है।
यूएसएआईडी के तहत शीर्ष मदद प्राप्तकर्त्ताओं में यूक्रेन, इथियोपिया, जॉर्डन, सोमालिया और अफगानिस्तान जैसे देश शामिल हैं। क्या भारत को ऐसे देशों की श्रेणी में रहना चाहिए? प्रश्न उठता है कि क्या अमेरिकन सहायता के रुकने से भारत में चल रहे कार्यक्रमों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा? इसका उत्तर देने के लिए हमें यूएसएआईडी की स्थापना के मूल उद्देश्यों को समझना होगा। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए अमेरिकन परमाणु हमलों के साथ समाप्त हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद न केवल जापान बल्कि यूरोप भी तबाही की कगार पर पहुँच गया था। तब दुनिया में पूंजीवादी अमेरिका और साम्यवादी सोवियत रूस दुनिया की शक्ति के दो बड़े केंद्रों के रूप में उभरे थे। उस समय पश्चिमी जर्मनी अमेरिकी खेमे में था तो पूर्वी जर्मनी सोवियत रूस की तरफ। अमेरिका को सोवियत रूस द्वारा पूरी दुनिया पर अपना साम्यवादी मॉडल थोपे जाने की आशंका थी। अतः उसने दूसरे विश्व युद्ध के तुरंत बाद एक मार्शल प्लान बनाया गया, जिसके अनतर्गत यूरोप के देशों को अमेरिका की तरफ से आर्थिक, तकनीकी, सैन्य जैसी अनेकों प्रकार की मदद दी गई।
वर्ष 1959 में अमेरिका के पास ही क्यूबा में साम्यवादी क्रांति की घटना ने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी को वर्ष 1961 में ‘अलायंस फॉर प्रोग्रेस’ नाम का प्लेटफॉर्म लॉन्च करने के लिए प्रेरित किया। इसके तहत दक्षिण और मध्य अमेरिका में लोकतंत्र और आर्थिक विकास के तमाम कार्यक्रम चलाए जाने थे। इसको दक्षिण अमेरिका में साम्यवाद से लड़ने के अमेरिकी कदम के तौर पर देखा गया। इसके बाद 1961 में ही अमेरिकी संसद में एक कानून पारित कर ऐसी स्थाई एजेंसी बनाई गई जो सक्रिय रूप से पूरी दुनिया में अमेरिकी विदेश नीति को आगे बढ़ाए। और इस तरह अस्तित्व में आया यूएसएआईडी। वर्ष 1998 में एसएआईडी को एक स्वतंत्र एजेंसी का दर्जा दे दिया गया। कथित तौर पर तो तो यूएसएआईडी अमेरिकी सरकार की मानवीय शाखा है जो गरीबी को कम करने, बीमारियों का इलाज करने, अकाल और प्राकृतिक आपदाओं में राहत और मदद, स्वतंत्र मीडिया, लोकतंत्र स्थापना और विकास के नाम पर आर्थिक मदद देने का कार्य करती है। परंतु वास्तव में यह अमेरिका की रक्षा एवं कूटनीति के अलावा विकास के रूप में तीसरे सुरक्षा स्तम्भ का नेतृत्व करती है।
अतः भारत को कोई भी ऐसी मदद लेने से पूर्व निम्न बिंदुओं पर विचार करना चाहिए,
(1) भारत एक सार्वभौमिक राष्ट्र है,
(2) आजादी के बाद के वर्षों में पानी इतना बह चुका है कि भारत स्वयं को ग़ुलाम रखने वाले देश को पछाड़ कर दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है,
(3) भारत ने वर्ष 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने का संकल्प लिया है,
(4) क्या भारत को यूक्रेन, इथियोपिया, जॉर्डन, सोमालिया, अफगानिस्तान जैसे देशों की भांति विदेशी शक्तियों के आगे हाथ फैलाना चाहिए?,
(5) क्या पूर्व में मिली विदेशी मदद का दुरुपयोग सामाजिक समरसता नष्ट करने, राष्ट्रीय अखंडता कमजोर करने, राष्ट्र विरोधी तत्वों को समर्थन देने, धर्मांतरण करने तथा अवैध घुसपैठ जैसे कार्यों में हुआ है?,
(6) क्या सशर्त आर्थिक अनुदान लेकर भारत विश्व महाशक्ति बनने का लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है? स्पष्टतः आज भारत को याचक नहीं दाता की भूमिका निभाते हुए वर्तमान चुनौती को अवसर में बदलना होगा।
ज्ञात हो कि चीन 150 से अधिक देशों एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में निवेश कर अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। आज भारत के पास एक अवसर है कि अमेरिका की मदद रोकने के निर्णय से दक्षिण एशिया में पैदा निर्वात को वह अपनी उपस्थिति से भर सके। उनको सद्भावना से आर्थिक मदद देते हुए पारस्परिक संबंधों को सुदृढ़ कर विश्व कल्याण में योगदान दे सकें ।