सामाजिक क्रांति के शिल्पी डॉ. अंबेडकर

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डॉ. भीमराव अंबेडकर ऐसे विचारक और समाज सुधारक थे, जिन्होंने भारतीय समाज में गहराई से जड़ें जमा चुके छुआछूत, जातिगत भेदभाव और सामाजिक अन्याय को खुली चुनौती दी। उन्होंने सिर्फ इन कुरीतियों की आलोचना नहीं की, बल्कि उनके विरुद्ध व्यापक संघर्ष भी किया और समाज के दबे-कुचले वर्गों को आत्मसम्मान और अधिकारों की चेतना से जोड़ा। वे संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। उनके नेतृत्व में तैयार संविधान ने भारत को एक लोकतांत्रिक ढांचा दिया, जिसमें सभी नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता और न्याय सुनिश्चित किए गए। उन्होंने संविधान में यह प्रावधान जोड़ा कि नागरिकों के साथ जाति, धर्म, लिंग, भाषा या जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसके अलावा अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण नीति का प्रस्ताव रख कर उन्होंने सामाजिक असमानता को घटाने का प्रयास किया।

अंबेडकर का मानना था कि सामाजिक बदलाव केवल कानूनी प्रावधानों से संभव नहीं है। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व किया। 1927 में महाड सत्याग्रह के माध्यम से उन्होंने दलितों को सार्वजनिक जलस्रोतों पर बराबरी का अधिकार दिलाने की पहल की। इसके बाद 1930 में कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन के जरिए उन्होंने धार्मिक स्थलों पर जाति आधारित भेदभाव को चुनौती दी। इन आंदोलनों ने दलितों में आत्मसम्मान और अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का काम किया। शिक्षा को सामाजिक बदलाव का मुख्य जरिया मानते हुए अंबेडकर ने कहा था कि समाज का असली उत्थान तभी संभव है, जब शिक्षा सबके लिए सुलभ और समान हो। उन्होंने वंचित वर्गों के लिए छात्रवृत्ति, स्कूलों और छात्रावासों की व्यवस्था की और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सामाजिक जागरूकता फैलाने का काम किया। उनका मानना था कि शिक्षा से ही व्यक्ति अपने अधिकारों को पहचान सकता है और समाज में सम्मान प्राप्त कर सकता है।

डॉ. अंबेडकर ने केवल सामाजिक ही नहीं, आर्थिक क्षेत्र में भी बदलाव की दिशा में काम किया। उन्होंने मजदूरों के लिए आठ घंटे कार्यदिवस, न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए उन्होंने हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार किया। हालांकि यह विधेयक उनके जीवनकाल में पारित नहीं हो सका, लेकिन इससे महिलाओं के अधिकारों पर एक नई बहस शुरू हुई, जिसने आगे चलकर कई सुधारों का आधार तैयार किया। अंबेडकर की सोच केवल भारत के संदर्भ में सीमित नहीं थी। वे लोकतंत्र को सत्ता परिवर्तन भर का माध्यम नहीं मानते थे, बल्कि इसे सामाजिक और आर्थिक बराबरी की प्रक्रिया से जोड़ कर देखते थे। उनका मानना था कि लोकतंत्र तभी सार्थक है, जब समाज के सबसे कमजोर व्यक्ति को भी गरिमा और अधिकार मिले। उनके विचार मानवाधिकारों की उस वैश्विक अवधारणा से मेल खाते हैं, जो हर व्यक्ति के सम्मान की रक्षा को सबसे बड़ी प्राथमिकता देती है।

डॉ. अंबेडकर के प्रयासों के कारण भारतीय समाज में सामाजिक बराबरी और न्याय की दिशा में ठोस बदलाव संभव हुआ। संविधान द्वारा मिले अधिकारों ने दलितों और वंचित वर्गों को शिक्षा, राजनीति और रोजगार में प्रतिनिधित्व का अवसर दिया। इसके बावजूद अंबेडकर का यह सपना कि जाति और भेदभाव रहित समाज बने, आज भी पूरी तरह साकार नहीं हुआ है। सामाजिक व्यवहार में भेदभाव के अनेक रूप अब भी मौजूद हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उनके बताए रास्ते पर चलने की आवश्यकता आज भी बनी हुई है। उन्होंने यह विचार दिया कि हर भारतीय को पहले नागरिक और फिर किसी जाति या समुदाय का सदस्य समझा जाना चाहिए। आज भी यह सोच सामाजिक एकता और राष्ट्रीय सौहार्द के लिए एक मजबूत आधार है। अंबेडकर के विचारों और कार्यों ने यह स्पष्ट कर दिया कि समाज का विकास केवल आर्थिक प्रगति से नहीं होता, बल्कि सामाजिक न्याय, बराबरी और मानवीय गरिमा की भावना से ही एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण संभव है।

डॉ. भीमराव अंबेडकर का जीवन और संघर्ष सामाजिक न्याय की एक ऐसी मशाल है, जो अन्याय और भेदभाव के अंधेरे को चीरकर समतामूलक समाज की राह दिखाती है। उनके कार्यों ने न केवल भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को एक मजबूत आधार प्रदान किया, बल्कि यह भी स्थापित किया कि सच्चा परिवर्तन केवल कानूनी प्रावधानों से नहीं, अपितु सामाजिक चेतना और मानसिकता में आमूलचूल बदलाव से संभव है। संविधान के माध्यम से उन्होंने समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के सिद्धांतों को संस्थागत रूप दिया, परंतु उनकी दृष्टि इससे कहीं व्यापक थी। उन्होंने समाज को यह सिखाया कि हर व्यक्ति की गरिमा और अधिकारों की रक्षा ही एक सभ्य समाज की पहचान है। जब तक समाज में असमानता, अन्याय और भेदभाव जैसी समस्याएं मौजूद हैं, तब तक अंबेडकर के विचार प्रासंगिक रहेंगे।

संघ के संस्कारों में अंबेडकर का भारत

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जिस भारत का सपना देखा था, वह राजनीतिक आज़ादी से परे सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति का सपना था। उनके लिए स्वतंत्रता का अर्थ केवल विदेशी शासन से मुक्ति नहीं, बल्कि उस सामाजिक अन्याय से मुक्ति भी था जो सदियों से भारतीय समाज में जड़ें जमाए बैठा था। उन्होंने समता, बंधुता और न्याय पर आधारित एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जहां हर व्यक्ति की पहचान उसके कर्म, चरित्र और मानवता से तय हो, न कि उसके जन्म से। आज जब हम इस सपने की वास्तविकता की ओर देखते हैं, तो संघ की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जो सामाजिक समरसता और एकात्मता के लिए निरंतर कर्मरत है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वैचारिक और सामाजिक संगठन के रूप में भारतीय समाज की गहराइयों में जाकर उस भेदभाव को मिटाने का प्रयास कर रहा है जो कभी डॉ. अंबेडकर के लिए चिंता का कारण रहा। संघ का मानना है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति (चाहे उसकी जाति, वर्ण या आर्थिक स्थिति कुछ भी हो) राष्ट्र निर्माण का समान भागीदार है। डॉ. अंबेडकर ने संविधान निर्माण के समय यह स्पष्ट कहा था कि राजनीतिक समानता तभी सार्थक होगी जब सामाजिक और आर्थिक समानता भी उसके साथ चले। संघ ने इसी सिद्धांत को अपने कार्य में मूर्त रूप दिया है। संघ की शाखाओं में न कोई जाति पूछता है, न धर्म और न आर्थिक स्तर। सभी स्वयंसेवक एक साथ, एक ही जमीन पर बैठते हैं और एक ही ध्येय वाक्य को आत्मसात करते हैं- ‘परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्।’

डॉ. अंबेडकर के सपनों का भारत तभी साकार हो सकता है जब समाज का हर वर्ग स्वाभिमान और समान अधिकार के साथ जीवन जी सके। संघ ने इसी विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए देश के कोने-कोने में सामाजिक समरसता के कार्यक्रम चलाए हैं। संघ के सेवा कार्यों में बस्तियों के बच्चों को शिक्षित करना, अछूत समझे जाने वाले वर्गों के बीच स्वास्थ्य शिविर लगाना और गांव-गांव में स्वावलंबन का बीज बोना एक सतत प्रक्रिया रही है। संघ के स्वयंसेवकों ने यह सिद्ध किया है कि सच्चा राष्ट्रवाद वही है जो अपने सबसे अंतिम नागरिक के मान-सम्मान और विकास में निहित हो।

डॉ. अंबेडकर ने भारतीय समाज के लिए जो चेतावनी दी थी कि यदि सामाजिक भेदभाव खत्म नहीं हुआ तो स्वतंत्रता केवल नाम की रह जाएगी। संघ ने उस चेतावनी को अपने संस्कारों का हिस्सा बना लिया। उनके कार्यों में केवल भाषण नहीं, बल्कि व्यावहारिक जीवन में समता का पालन दिखता है। संघ का मानना है कि जाति के आधार पर किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन करना राष्ट्र की एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यही कारण है कि संघ हर उस व्यक्ति को गले लगाता है जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता की एकता में विश्वास रखता है, भले ही उसका सामाजिक परिवेश कोई भी क्यों न हो।

डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक न्याय के लिए जो बीज बोए थे, संघ ने उसे अपने कार्यों के माध्यम से सींचा है। एक ऐसी पीढ़ी तैयार करना जो जाति, भाषा और क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर केवल मनुष्य और नागरिक की दृष्टि से अपने साथियों को देखे, यही डॉ. अंबेडकर की मूल अपेक्षा थी। संघ ने इस अपेक्षा को धरातल पर उतारने में न केवल सक्रियता दिखाई, बल्कि यह सिद्ध भी किया कि सामाजिक क्रांति केवल नारों से नहीं, सेवा और समर्पण से आती है। डॉ. अंबेडकर के सपनों का भारत तभी पूर्ण होगा जब हर हाथ को काम, हर दिल को सम्मान और हर विचार को स्वतंत्रता मिले। संघ इसी दिशा में रात-दिन लगा हुआ है।


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Devendra Raj Suthar

देवेन्द्रराज सुथार समसामयिक विषयों पर लेखन करने वाले एक प्रतिष्ठित युवा हिंदी लेखक हैं।उन्होंने जोधपुर विश्वविद्यालय से स्नातक एवं वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा से शिक्षा प्राप्त की है। विगत 10 वर्षों से लेखन में सक्रिय सुथार जी की रचनाएँ 100 से अधिक पत्र-पत्रिकाओं व पोर्टलों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। वे ‘लोकतंत्र की बुनियाद’ पत्रिका के राजस्थान ब्यूरो चीफ हैं। उन्हें हिंदी सेवा सम्मान, यशपाल साहित्य सम्मान सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।

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