स्वामी विवेकानंद : युवाओं के आदर्श महानायक

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“जो आपके पास मौलिक गुण है उससे ही जीवन में श्रेष्ठ सफलता प्राप्त की जा सकती है।”
स्वामी विवेकानंद विश्व के सबसे बड़े धर्म सम्मेलन 11 सितम्बर 1893 अमेरिका में अपने आध्यात्मिक ज्ञान के बलबूते पर ही गए थे। भारत के इस सन्देश वाहक की चिंतनधारा की अमेरिका पर गहरी छाप पड़ी। इस गुण के अलावा उनके पास उस समय कुछ नहीं था। लेकिन यह शक्ति कोई साधारण नहीं थी। उनके इस गुण में भारतवर्ष की हजारों वर्षों की आध्यात्मिक ऊर्जा सिंचित थी। वे भारतीय आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत थे। वे भारत के प्राचीन साहित्य व अपने समय के यथार्थ को भलीभांति जानते थे। स्वामी विवेकानंद जी भारतवर्ष के अपने समय के ज्ञान रूपी सूर्य से कम नहीं थे। वे वेदों व प्राचीन भारतीय शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। उनके बतायें मार्ग व दर्शन से भारत में नवजागरण हुआ और आजतक वे युवाओं के लिए महानायक है।
स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय बताता है कि उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गये वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। आज जब हम स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस १२ जनवरी को युवा दिवस के रूप में मनाते हैं तो यह हमारे लिए गर्व का विषय है। एक ऐसा युवा जिसने अपने छोटे से जीवन में न सिर्फ़ भारतवर्ष को छान दिया, बल्कि विश्व में भारतवर्ष के अद्भुत धर्म शास्त्रों का परचम लहराया। सनातन हिंदू धर्म की ध्वजा को उन्होंने बड़ी ही कुशलता व श्रेष्ठता के साथ विश्व के सामने लहराया। यह सब करना इतना भी आसान नहीं था, जबकि भारत में ही उनके अनेकों दुश्मन हो गए थे। पर स्वामी विवेकानंद ने भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान के बल पर अंततः विश्व की बड़ी संख्या का दिल जीत लिया।
यह सब इसलिए हुआ कि वे भारतवर्ष में बहुत घूमे साथ ही दुनिया के कितने ही देशों में लोगों के बीच जाकर अपने सच्चे सनातन धर्म की बात कहीं। वे सिर्फ़ हिमालय की कंदराओं में बैठकर ध्यान करने वाले योगी नहीं थे, वे जनमानस के बीच रहकर आध्यात्म की लौ जगाने वाले योगी थे। उन्हें पता था कि खाली पेट भजन नहीं हो सकता है।
उन्होंने अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस जी से सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सबसे पहले भारत को जाना। शुरुआत में अपने गुरू की कितनी ही बातों का वे विरोध करते थे। वे इतनी आसानी से अपने गुरू की बातें भी स्वीकार नहीं करते थे। वे हर बात व तथ्य को कसौटी पर कसते हुए उसकी गहराई तक जाते थे। इसलिए ही बाद में उन्होंने कहा कि “स्वयं पर विश्वास करो।” वे हमेशा कहते थे किसी भी बात पर आंख मूंदकर भरोसा मत करो, उसे स्वयं से जानों। वे भारतीय प्राचीन ज्ञान की शक्ति की क्षमता को जान गए थे। जिसके लिए वे भारत को जानने के लिए वे भारत के कौने-कौने मे गए। आम लोगों के बीच रहे। उनके दुख दर्द को जाना। भारत की वास्तविक शक्ति व गुण को पहचाना। सैकड़ों वर्षों की दासता के बाद उन्होंने भारतीयों को जागृत किया कि अपनी मूल शक्ति आध्यात्म की ओर लौटो। वेद व प्राचीन आध्यात्मिक शक्ति को पहचानों। आत्मनिर्भर बनो। उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए।
स्वामी विवेकानंद के बारे में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था-“यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।” रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-“उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।”
देश की उन्नति–फिर चाहे वह आर्थिक हो या आध्यात्मिक–में स्वामी विवेकानंद शिक्षा की भूमिका केन्द्रिय मानते थे। भारत तथा पश्चिम के बीच के अन्तर को वे इसी दृष्टि से वर्णित करते हुए कहते हैं, “केवल शिक्षा! शिक्षा! शिक्षा! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमकर और वहाँ के ग़रीबों के भी अमन-चैन और विद्या को देखकर हमारे ग़रीबों की बात याद आती थी और मैं आँसू बहाता था। यह अन्तर क्यों हुआ ? जवाब पाया – शिक्षा!” स्वामी विवेकानंद का विचार था कि उपयुक्त शिक्षा के माध्यम से व्यक्तित्व विकसित होना चाहिए और चरित्र की उन्नति होनी चाहिए। सन् १९०० में लॉस एंजिल्स, कैलिफ़ोर्निया में दिए गए एक व्याख्यान में स्वामी यही बात सामने रखते हैं, “हमारी सभी प्रकार की शिक्षाओं का उद्देश्य तो मनुष्य के इसी व्यक्तित्व का निर्माण होना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत हम केवल बाहर से पालिश करने का ही प्रयत्न करते हैं। यदि भीतर कुछ सार न हो तो बाहरी रंग चढ़ाने से क्या लाभ ? शिक्षा का लक्ष्य अथवा उद्देश्य तो मनुष्य का विकास ही है।”
स्वामी विवेकानन्द की वाणी में गजब का आकर्षण रहता था। वे जो भी बात कहते उसमें व्यवहारिक ज्ञान होता था। उनका कहना था:- “तुमको कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।” यह बात भले साधारण लग रही हो। लेकिन इस एक बात से उन्होंने भारत में वर्षों से पनप रहे पाखंड व अनेक कुरीतियों पर आक्रमण किया था। शायद इसके ही कारण कितनी ही तथाकथित धार्मिक संस्थाएं व धर्म गुरू उनका विरोध करते रहे थे।
जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-“एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।” इस बात में बहुत गहराई थी, वे जैसा कि कहते थे एक विवेकानंद से कुछ नहीं होगा। वे अपने जैसे विचारों वाले युवाओं का एक बड़ा दल संगठित करना चाहते थे। जो भारत की गरीबी को मिटाने में पूर्ण रूप से समर्पित हो। भारत की अपनी यात्राओं में उन्होंने गरीबी को देखा था। जिससे वे बहुत दुखी भी रहे। पश्चिम का वैभवशाली भौतिक वातावरण उन्हें कभी आकर्षित नहीं कर पाया, क्योंकि वे भारत भूमि के सच्चे राष्ट्र भक्त थे। इसलिए ही वर्षों से निद्रा में पड़े भारतीयों को वे जगाना चाहते थे। वे अच्छे से जानते थे कि यदि यह भारतीय जाग गया तो विश्व का कल्याण ही होगा। वे हमेशा युवाओं के लिए आदर्श रहे।
आज जब विश्व के युवाओं के सामने महामारीयों व नस्लीय हिंसाओं का मकडज़ाल फैला हुआ है तब इस स्थिति में स्वामी विवेकानंद के ही विचार युवाओं के लिए आदर्श होगें। क्योंकि जैसा स्वामी जी मानते थे, युवाओं के द्वारा ही वर्तमान व भविष्य का कल्याण होता है। युवा ही हमारे समाज की रीढ़ है। इसलिए युवाओं को स्वामी विवेकानंद के विचारों को आत्मसात करके वर्तमान व भविष्य का निर्माण करना चाहिए। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने भारत की जनता में खोये हुए आत्मविश्वास को जगाया। उसी तरह आज के युवाओं को भारत के खोये गौरव को वापस प्राप्त करने के लिए भारत में ही रहकर काम करना होगा। सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए हमारे युवा भाईयों बहनों को स्वामी विवेकानंद जी के विचारों व मार्ग पर चलकर इस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहिए। तब कहीं स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस को युवा दिवस मनाना सार्थक माना जाऐगा।

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Bhupendra Bhartiya

Bhupendra Bhartiya is an accomplished advocate and law faculty member from Dewas, Madhya Pradesh, with an impressive academic background in law (LL.B (Hons.), LL.M, M.Phil). A prolific writer, he has a deep interest in contemporary issues, poetry, and satire, with over 200 satirical pieces published in leading national and international publications like Nai Dunia, Dainik Jagran, and Amar Ujala. Additionally, his contributions include over two dozen published poems and book reviews, reflecting his versatile literary talent.

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