आज, जब भारत 1200 वर्षों बाद फिर एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है, हमें आदि शंकराचार्य के कार्यों से प्रेरणा लेकर पुनः सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ओर अग्रसर होना है। इस दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हो रहे प्रयास उसी परंपरा के आधुनिक रूप हैं।
आदि शंकराचार्य, केवल एक दार्शनिक या आध्यात्मिक गुरु नहीं थे, बल्कि वे भारत की सांस्कृतिक एकता और सनातन चेतना के अद्वितीय सूत्रधार थे। उनकी जयंती केवल स्मरण का अवसर नहीं है, बल्कि यह भारत की आत्मा को पुनः जागृत करने का क्षण है। 8वीं शताब्दी में जब भारतवर्ष विविधता में विभाजित था, आदि शंकराचार्य ने सम्पूर्ण भारत की पदयात्रा कर न केवल दार्शनिक समन्वय का कार्य किया, बल्कि राष्ट्रीय एकता का भी बीज बोया।
अद्वैत वेदांत की घोषणा कि “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” ने यह स्पष्ट कर दिया कि समस्त प्राणी एक ही ब्रह्म के अंश हैं। उन्होंने शृंगेरी, द्वारका, पुरी और ज्योतिर्मठ जैसे चार पीठों की स्थापना की, जिससे भारत की आध्यात्मिक परंपरा को संस्थागत आधार मिला। शंकराचार्य का योगदान केवल दार्शनिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भी अमूल्य है।
आज, जब भारत 1200 वर्षों बाद फिर एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है, हमें आदि शंकराचार्य के कार्यों से प्रेरणा लेकर पुनः सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ओर अग्रसर होना है। इस दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हो रहे प्रयास उसी परंपरा के आधुनिक रूप हैं।
काशी-तमिल संगमम, सौराष्ट्र-तमिल संगमम और काशी-तेलुगु-कन्नड़ संगमम जैसे प्रयास यह प्रमाणित करती हैं कि भारत की आत्मा भाषा, क्षेत्र या जाति से नहीं बंटी है। यह एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एकता में बसी हुई है। इन संगमों ने उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम की दूरी को नहीं, बल्कि निकटता को रेखांकित किया है।
केदारनाथ और बद्रीनाथ धामों का पुनर्निर्माण, अयोध्या में श्रीराम मंदिर का भव्य निर्माण, ओंकारेश्वर में स्थापित ‘स्टैच्यू ऑफ ऑननेस’—आदि शंकराचार्य की 108 फुट ऊंची प्रतिमा—और महाकुंभ का सफल आयोजन यह दर्शाते हैं कि भारत अपनी विरासत को केवल संरक्षित ही नहीं कर रहा, वह उसे पुनः विश्व के समक्ष सशक्त रूप से प्रस्तुत कर रहा है।
यूनेस्को द्वारा भगवद गीता और नाट्यशास्त्र को विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित किया जाना न केवल भारत की सांस्कृतिक श्रेष्ठता की पुष्टि है, बल्कि यह भारत के बौद्धिक और आध्यात्मिक योगदान की वैश्विक स्वीकृति भी है। यह सब उस सांस्कृतिक नेतृत्व का परिणाम है, जो आज भारत को केवल एक भूभाग नहीं, बल्कि एक जीवंत सभ्यता के रूप में प्रतिष्ठित कर रहा है।
युवा संगम जैसी पहलें भावी पीढ़ियों को एकसूत्र में बांध रही हैं, जिससे ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की संकल्पना जीवंत हो रही है।
इसलिए आज, आदि शंकराचार्य की जयंती पर हमें न केवल श्रद्धांजलि अर्पित करनी है, बल्कि उनके विचारों को 21वीं सदी के भारत के राष्ट्रीय चरित्र में आत्मसात करना है। संस्कृति, धर्म और राष्ट्रनिर्माण एक दूसरे से पृथक नहीं, बल्कि एक ही सतत धारा के अंग हैं।
आइए, हम भी शंकराचार्य की तरह संस्कृति के रक्षक और भारत की एकात्म चेतना के वाहक बनें। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।