Krishna Murari Tripathi 'Atal' https://visionviksitbharat.com/author/krishna-murari-tripathi/ Policy & Research Center Wed, 02 Apr 2025 04:26:33 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8 https://visionviksitbharat.com/wp-content/uploads/2025/02/cropped-VVB-200x200-1-32x32.jpg Krishna Murari Tripathi 'Atal' https://visionviksitbharat.com/author/krishna-murari-tripathi/ 32 32 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बाबा साहेब अम्बेडकर https://visionviksitbharat.com/rashtriya-swayamsevak-sangh-dr-b-r-ambedkar/ https://visionviksitbharat.com/rashtriya-swayamsevak-sangh-dr-b-r-ambedkar/#respond Wed, 02 Apr 2025 04:26:33 +0000 https://visionviksitbharat.com/?p=1564   संघ ने ‘व्यक्तिनिष्ठ’ नहीं अपितु ‘तत्वनिष्ठ’ प्रणाली को चरितार्थ किया। इसी का प्रतिफल है कि संघ कार्यों की समाज जीवन में व्यापक स्वीकार्यता हुई। राष्ट्रीयता समरसता, एकता, बंधुता और…

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संघ ने ‘व्यक्तिनिष्ठ’ नहीं अपितु ‘तत्वनिष्ठ’ प्रणाली को चरितार्थ किया। इसी का प्रतिफल है कि संघ कार्यों की समाज जीवन में व्यापक स्वीकार्यता हुई। राष्ट्रीयता समरसता, एकता, बंधुता और एकात्मता के उन्हीं मूल्यों के साथ संघ आगे बढ़ा जिसका स्वप्न डॉ अंबेडकर जैसे महापुरुष देखा करते थे।

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 2025 में विजयादशमी की तिथि को अपना शताब्दी वर्ष पूर्ण करेगा। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में किसी भी सामाजिक सांस्कृतिक संगठन के 100 वर्ष पूरे होना अपने आप में आश्चर्य एवं शोध का विषय है। किंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसे अपनी वैचारिक निष्ठा, दूरदर्शिता, अनुशासन और श्रेष्ठ सांगठनिक पद्धति के साथ इस महानतम् पड़ाव को साकार किया है। राष्ट्रीयता के मूल्यों की पुनर्स्थापना और राष्ट्र निर्माण के लिए असंख्य स्वयंसेवकों की दीपमालिकाओं से राष्ट्र को आलोकित किया है। यह संभव हुआ है तो संघ के प्रथम सरसंघचालक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार की विशद् दृष्टि के चलते जिन्होंने बीज रूप में स्वयं को संगठन में आत्मार्पित कर-संघ को विशाल वृक्ष के रूप में मूर्तरूप प्रदान किया। संघ उसी समुज्ज्वल वैचारिक दृढ़ता के साथ उसी ऊर्जा के साथ राष्ट्र निर्माण में लगा है । जो ऊर्जा 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी की तिथि को संघ की स्थापना के समय थी। ‘सर्वेषां अविरोधेन’ अर्थात् हमारा कोई विरोधी नहीं है। इस मान्यता के साथ संघ ने राष्ट्र के मानस और हिन्दू समाज के आत्मगौरव को जागृत करने में महती भूमिका निभाई है। इसी कड़ी में प्रायः जब संघ और बाबा साहेब अम्बेडकर के कार्यों पर दृष्टि जाती है तो अद्भुत साम्य देखने को मिलता है। संघ प्रारंभ से ही अखंड भारत और सामाजिक समरसता के साथ राष्ट्रीयता के मूल्यों

के अनुरूप समाज को सशक्त बनाने के लिए काम करता आ रहा है। समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में संघ प्रेरित संगठन काम कर रहे हैं। इसी प्रकार डॉक्टर अंबेडकर की सामाजिक समरसता की दृष्टि, राष्ट्रीयता, आर्थिक नीति, स्वावलंबन, स्वदेशी, स्व-भाषा और कन्वर्जन के विरुद्ध  जो दृष्टि मिलती है।‌वही संघ में साकार रूप में दिखाई देती है। संघ के वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, स्वदेशी, संस्कार भारती, संस्कृत भारती, एकल विद्यालय जैसे प्रकल्प इसी कड़ी के महत्वपूर्ण आयाम हैं।  यह इसी साम्य भाव की परिणति रही है कि बाबा साहेब अंबेडकर उस समय के समस्त राजनीतिक परिदृश्यों/ राजनेताओं और कांग्रेस आदि की कटु आलोचना करते रहे। किन्तु एक भी ऐसा प्रसंग नहीं आता है जब बाबा साहेब अंबेडकर ने कभी भी संघ की  आलोचना की हो।

वर्तमान में जब कुत्सित राजनीति ‘भाषायी  विवाद’ खड़े कर विभाजन उत्पन्न करना चाहती है। उस समय डॉ अंबेडकर के विचार मार्गदर्शक बनकर खड़े हैं।डॉ अंबेडकर वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने संसद में संस्कृत को राष्ट्रभाषा/राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रस्ताव दिया था। वो भारतीय भाषाओं की सामर्थ्य और एकात्मता को समझते थे। अतएव उन्होंने एकता के सूत्रों को अपने विचारों और कार्यों से प्रकट किया।

इसी प्रकार संघ निरंतर सभी भारतीय भाषाओं के संरक्षण, सम्वर्द्धन और उसके प्रयोग को लेकर  कार्य करता है। विदेशी भाषा के स्थान पर ‘मातृभाषा’ के प्रयोग के लिए समाज को प्रेरित करता है। संघ कन्वर्जन के विरुद्ध मुखर होकर प्रतिरोध दर्ज कराता है। समाज को प्रेरित करता है। जनजातीय अस्मिता के साथ-साथ समस्त क्षेत्रों में भारत के ‘स्व’ को प्रतिष्ठित करता है।

डॉ हेडगेवार और डॉ. अंबेडकर दोनों आजीवन सामाजिक समरसता को मूर्तरूप देने में लगे रहे। डॉक्टर जी की उसी संकल्पना का सुफल है सामाजिक समरसता का उत्कृष्ट उदाहरण संघ में सर्वत्र दिखता है। संघ में कभी भी किसी भी स्वयंसेवक से जाति- धर्म नहीं पूछा जाता है। संघ का स्वयंसेवक केवल स्वयंसेवक होता है। सभी एक पंक्ति में एक साथ बैठकर भोजन करते हैं – साथ रहते हैं और संघ कार्य में जुटे रहते हैं। इसी सम्बन्ध में 1 मार्च 2024 को डॉक्टर जी की जीवनी ‘मैन ऑफ द मिलेनिया: डॉ. हेडगेवार’ के विमोचन के अवसर पर संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने अपने उद्बोधन के दौरान कहा था कि — “संघ ने पहले दिन से जाति, अस्पृश्यता के बारे में कभी सोचा तक नहीं। इतना ही नहीं, डॉ हेडगेवार जी ने सामाजिक समरसता के लिए डॉ बाबा साहब अंबेडकर के साथ पुणे में चर्चा-संवाद किया। बाद में बाबासाहब संघ के कार्यक्रम में आए। साळुके जी ने उस बातचीत को अपनी डायरी में रिकॉर्ड किया है। उस पर पुस्तक भी छपी है।”

इसी संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के उद्बोधन/ लेख के इस संक्षिप्तांश से बाबा साहेब अंबेडकर और संघ के अन्तर्सम्बन्धों पर सारगर्भित संदेश प्राप्त होता है — “बाबासाहब को संघ के विषय में पूरी जानकारी थी । 1935 में वह पुणे में महाराष्ट्र के पहले संघ शिविर में आये थे । उसी समय उनकी डॉ. हेडगेवार से भी भेंट हुई थी । वकालत के लिए वे दापोली (महाराष्ट्र) गये थे, तब भी वे वहाँ की संघ शाखा में गये थे और संघ स्वयंसेवकों से दिल खोलकर संघ कार्य के बारे में चर्चा की थी ।1937 की करहाड शाखा (महाराष्ट्र) के विजयादशमी उत्सव पर बाबासाहब का भाषण और उसमें संघ के विषय में प्रगट किए गए उनके विचार जिन्हें आज भी स्मरण हैं, ऐसे लोग आज भी वहाँ हैं ।सितम्बर 1948 में श्री गुरुजी और बाबासाहब की दिल्ली में भेंट हुई थी। गांधीजी की हत्या के बाद सरकार ने द्वेष के कारण संघ पर प्रतिबंध लगाया था, उसे हटवाने के लिए पू. बाबासाहब, सरदार पटेल और श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कोशिश की थी । 1939 में पूना संघ शिक्षा वर्ग में सायंकाल के कार्यक्रम हेतु बाबासाहब आए थे । डॉ. हेडगेवार भी वहीं थे । लगभग 525 पूर्ण गणवेशधारी स्वयंसेवक संघस्थान पर थे। बाबासाहब ने पूछा, ‘इनमें अस्पृश्य कितने हैं ?’

डॉ. हेडगेवार ने कहा, ‘अब आप पूछिए न?’ बाबासाहब ने कहा, “देखो, मैं पहले ही कहता था ।” इस पर डॉ. हेडगेवार ने कहा — “यहाँ हम अस्पृश्य हैं ऐसा किसी को कभी लगने ही नहीं दिया जाता । अब यदि चाहें तो जो उपजातियाँ हैं, उनका नाम लेकर पूछिए ।“ तब बाबासाहब ने कहा – “वर्ग में जो चमार, महार, मांग, मेहतर हों वे एक-एक कदम आगे आएं ।” ऐसा कहते ही कोई सौ से ऊपर स्वयंसेवक आगे आए ।

1953 में मा. मोरोपंत पिंगले, मा. बाबासाहब साठे और प्राध्यापक ठकार औरंगाबाद में बाबासाहब से मिले थे । तब उन्होंने उनसे संघ के बारे में ब्योरेवार जानकारी प्राप्त की । शाखाएँ कितनी हैं, संख्या कितनी रहती है आदि पूछा । वह जानकारी प्राप्त करने के बाद बाबासाहब मोरोपंत जी से कहने लगे, “मैंने तुम्हारी ओ.टी.सी. देखी थी। उसमें जो तुम्हारी शक्ति थी, उसमें इतने वर्षों में जितनी होनी चाहिए थी उतनी प्रगति नहीं हुई। प्रगति की गति बड़ी धीमी दिखाई देती है। मेरा समाज इतने दिन प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं है।”

आगे चलकर संघ ने एकात्मता स्त्रोत में महापुरुषों के पुण्य स्मरण के क्रम में 30वें श्लोक में “ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरुः ” के रूप में उसी परंपरा को संघ के स्वयंसेवकों के माध्यम से समाज तक ले जाने के भावबोध को विकसित किया है। अर्थात् डॉ अंबेडकर ने जो सूत्र दिए-जो विचार दिए संघ ने उसे समाज जीवन में साकार किया।

डॉक्टर हेडगेवार से चली आ रही मूल्यों की परंपरा के प्रति संघ के विचार पीढ़ी दर पीढ़ी उसी स्वरूप में दृष्टव्य होते हैं। संघ के वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के समरसता पर केन्द्रित ये विचार उसी भावभूमि को प्रकट करते हैं —

“भारत के प्रत्येक गांव, तहसील और जिले में ऐसी सज्जन शक्ति विद्यमान है जो सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने का कार्य करती है। भारतीय समाज में जाति और पंथ से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी गई है जिससे 140 करोड़ भारतीय किसी भी धर्म, जाति या पंथ से हो। अपने राष्ट्रीय चरित्र को नहीं भूलते। देश में विभिन्न भाषाएं, वेशभूषा, पूजा पद्धतियां और उपासना विधियां होने के बावजूद भारतीयता की डोर उन्हें एक सूत्र में बांधती है। राष्ट्रीय चरित्र की स्थापना के लिए सामाजिक समरसता की जड़ों को मजबूत करना आवश्यक है। मंदिर, जलाशय, शमशान जैसे स्थानों पर सभी जाति, पंथ और वर्गों का समान अधिकार है। यह भारत का शाश्वत आचरण है और इसे बरकरार रखना होगा। ”  ( 30 दिसंबर 2024, रायपुर , छत्तीसगढ़)

अभिप्रायत: संघ और डॉक्टर अंबेडकर के विचारों में साम्य और एकात्म ही नहीं अपितु उसे प्रामाणिकता के साथ कार्य रूप में परिणत करने का शाश्वत बोध भी है। जो संघ कार्य में सर्वत्र प्रतिबिंबित होता है।

इसी प्रकार जब बात स्वातंत्र्य आंदोलन की आती है तो ‘जन्मजात देशभक्त’ स्वतंत्रता सेनानी डॉ हेडगेवार उस समय  अखण्ड भारत की संकल्पना को लेकर तपस्वी स्वयंसेवकों को तैयार कर समाज को संगठित कर रहे थे। समाज के‌ विविध क्षेत्रों में कार्य कर रहे थे। उन्होंने घोषणा की थी “हमारा उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता है, संघ का निर्माण इसी महान लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है।”

उस समय संघ की शाखा में  सभी स्वयंसेवक यह प्रतिज्ञा लेते थे कि —“मैं अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए तन–मन – धन पूर्वक आजन्म और प्रामाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प लेता हूं।”

जहां संघ ने अखंड भारत के विचार के साथ

भारत विभाजन का विरोध किया,  वहीं अखंड भारत को लेकर डॉ.अम्बेडकर के भी विचार सुस्पष्ट थे। वे किसी भी स्थिति में भारत विभाजन के पक्षधर नहीं थे। ‘पाकिस्तान एंड पार्टिशन ऑफ इंडिया पुस्तक’ में उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों को लेकर सविस्तार लिखा है। ‘मुस्लिम मानसिकता और इस्लामिक ब्रदरहुड’ पर कटुसत्य उद्धाटित किया है।साथ ही विभाजन को लेकर उन्होंने जहां – जिन्ना को लताड़ा वहीं विभाजन पर कांग्रेस सहित महात्मा गांधी और पंडित नेहरू को भी कटघरे में खड़ा किया। उन्होंने भारत विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करने को स्पष्ट रूप से कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टिकरण बताया था। डॉ. अम्बेडकर ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर तीखा प्रहार किया था। उन्होंने पाकिस्तान बन जाने के बाद जनसंख्या की अदला बदली को लेकर स्पष्ट रूप से कहा था —

“प्रत्येक हिन्दू के मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि पाकिस्तान बनने के बाद हिन्दुस्थान से साम्प्रदायिकता का मामला हटेगा या नहीं, यह एक जायज प्रश्न था और इस पर विचार किया जाना जरूरी था। यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान के बन जाने से हिंदुस्थान साम्प्रदायिक प्रश्न से मुक्त नहीं हो पाया।पाकिस्तान की सीमाओं की पुनर्रचना कर भले ही इसे सजातीय राज्य बना दिया गया हो लेकिन भारत को तो एक संयुक्त राज्य ही बना रहना चाहिए। हिंदुस्थान में मुसलमान सभी जगह बिखरे हुए हैं, इसलिए वे ज्यादातर कस्बों में एकत्रित होते हैं। इसलिए इनकी सीमाओं की पुनर्रचना और सजातीयता के आधार पर निर्धारण सरल नहीं है। हिंदुस्थान को सजातीय बनाने का एक ही रास्ता है कि जनसंख्या की अदला-बदली सुनिश्चित हो, जब तक यह नहीं किया जाता तब तक यह स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी, बहुसंख्यक समस्या बनी रहेगी। हिंदुस्थान में अल्पसंख्यक पहले की तरह ही बचे रहेंगें और हिंदुस्थान की राजनीति में हमेशा बाधाएं पैदा करते रहेंगे।” (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया संस्करण 1945, थाकेर एंड क., पृष्ठ-104)

उपरोक्त संदर्भों एवं विवेचनों से सुस्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत की महान परंपरा को दर्शन बनाकर – कार्यों में प्रकट किया।व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण का ध्येय लेकर समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आदर्शों का उदाहरण प्रस्तुत किया। राष्ट्र के महापुरुषों और गौरवशाली परंपरा के अनुरूप राष्ट्रीयता के ‘पाञ्चजन्य’ का शंखनाद किया। यह इसीलिए फलीभूत हुआ क्योंकि संघ ने ‘व्यक्तिनिष्ठ’ नहीं अपितु ‘तत्वनिष्ठ’ प्रणाली को चरितार्थ किया। इसी का प्रतिफल है कि संघ कार्यों की समाज जीवन में व्यापक स्वीकार्यता हुई।राष्ट्रीयता समरसता, एकता, बंधुता और एकात्मता के उन्हीं मूल्यों के साथ संघ आगे बढ़ा जिसका स्वप्न डॉ अंबेडकर जैसे महापुरुष देखा करते थे।संघ में जो कुछ भी है वह समाज का ही है और संघ की स्पष्ट मान्यता है कि ‘समूचा समाज संघ बने और संघ ही समाज बने’। इसी संदर्भ में डॉ मोहन भागवत के ये विचार  प्रासंगिक है— “संघ पूरे समाज को अपना मानता है।‌ एक दिन यह बढ़ते-बढ़ते समाज का रूप ले लेगा तब संघ का यह नाम भी हट जाएगा और हिंदू समाज ही संघ बन जाएगा।” ( 18 अप्रैल, 2023 , ब्रम्हपुर (बुरहानपुर) मप्र)

 

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सृष्टि चक्र का शाश्वत सनातन संवाहक भारतीय नवसम्वत्सर https://visionviksitbharat.com/srishti-chakra-ka-shaswat-sanatan-samvahak-bhartiya-navsamvatsar/ https://visionviksitbharat.com/srishti-chakra-ka-shaswat-sanatan-samvahak-bhartiya-navsamvatsar/#respond Sun, 30 Mar 2025 17:55:34 +0000 https://visionviksitbharat.com/?p=1548   भारतीय संस्कृति एवं प्रकृति का पारस्परिक तादात्म्य भी अपने आप में अनूठा है। हम प्रायः देखते हैं कि  चैत्र प्रतिपदा के साथ ही प्रकृति में परिवर्तन – नव चैतन्यता,…

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भारतीय संस्कृति एवं प्रकृति का पारस्परिक तादात्म्य भी अपने आप में अनूठा है। हम प्रायः देखते हैं कि  चैत्र प्रतिपदा के साथ ही प्रकृति में परिवर्तन – नव चैतन्यता, नवोत्साह का वातावरण यत्र – तत्र सर्वत्र दिखाई देने लग जाता है। बसंतोत्सव में माँ वीणापाणि के पूजन के सङ्ग वृक्षों पर नव कोपल आने लगते हैं। साथ ही ऋतुराज वसंत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से अपनी पूर्णता को प्राप्त करता हुआ दिखता है।

 

चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि भारतीय संस्कृति में अपना विशिष्ट महत्व रखती है। यह तिथि नवसम्वत्सर – हिन्दू नववर्ष के उत्साह पर्व की तिथि है। यह तिथि भारतीय मेधा के शाश्वत वैज्ञानिकीय चिंतन – मंथन के साथ – साथ लोकपर्व के रङ्ग में जीवन के सर्वोच्च आदर्शों से एकात्मकता स्थापित करती है। वैज्ञानिकता पर आधारित प्राचीन श्रेष्ठ कालगणना पद्धति के अनुरूप ऋतु चक्र परिवर्तन एवं सूर्य – चन्द्र की गति के अनुरूप नव सम्वत्सर का प्रारम्भ होता है। भारतीय संस्कृति अर्थात् हिन्दू संस्कृति के माहों ( मासों ) का नामकरण नक्षत्रों के नाम पर हुआ। इसके लिए हमारे पूर्वजों ने व्यवस्था दी कि – जिस मास में जिस नक्षत्र में चन्द्रमा पूर्ण होगा , वह मास उसी नक्षत्र के नाम से जाना जाएगा। और इस पध्दति के अनुसार — चैत्र – चित्रा, वैशाख – विशाखा, ज्येष्ठ – ज्येष्ठ, अषाढ़ – अषाढ़ा, श्रावण – श्रवण, भाद्रपद -भाद्रपद, अश्विन – आश्विनी , कार्तिक – कृतिका, मार्गशीर्ष – मृगशिरा, पौष – पुष्य, माघ- मघा, फाल्गुन – फाल्गुनी ; आदि के आधार पर नामकरण किया है।

सृष्टि रचयिता भगवान ब्रह्मा जी ने चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्योदय के साथ ही सृष्टि निर्माण कार्य प्रारम्भ किया था। जो कि सात दिनों तक चला और इसी कारण से सृष्टि सम्वत्सर – नवसम्वत्सर का प्रारम्भ भी इसी तिथि से माना जाता है ‌। इस प्रकार भारत की शाश्वत सनातनी हिन्दू धर्म संस्कृति के संवाहक एवं अविरल प्रवाह के रूप में – हिन्दू नववर्ष / नवसम्वत्सर सतत् अपनी वैविध्य पूर्ण उत्सवधर्मी छटा बिखेरता आ रहा है।

भारतीय संस्कृति एवं प्रकृति का पारस्परिक तादात्म्य भी अपने आप में अनूठा है। हम प्रायः देखते हैं कि  चैत्र प्रतिपदा के साथ ही प्रकृति में परिवर्तन – नव चैतन्यता, नवोत्साह का वातावरण यत्र – तत्र सर्वत्र दिखाई देने लग जाता है। बसंतोत्सव में माँ वीणापाणि के पूजन के सङ्ग वृक्षों पर नव कोपल आने लगते हैं। साथ ही ऋतुराज वसंत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से अपनी पूर्णता को प्राप्त करता हुआ दिखता है। ग्रीष्म ऋतु में फलदार वृक्षों पर प्रायः फल आ जाते हैं । सूर्य की किरणों से प्रकृति द्युतिमान होने लग जाती है। इसी समयफसलों की कटाई के साथ ही कृषकों के यहाँ धन- धान्य का आगमन होने लग जाता है। इस प्रकार नव सम्वत्सर में नव परिवर्तन की धानी चूनर ओढ़े प्रकृति आनन्द की रचना करने लग जाती है ।

प्रकृति के साहचर्य के सङ्ग जीवन की उमङ्गों को बिखेरने वाला भारतीय नव‌ सम्वत्सर अपने आप में अद्वितीय-अनूठा-अनुपमेय एवं‌ अप्रतिम है। स्थूल से लेकर सूक्ष्मतम् काल गणना की पद्धति अर्थात् – पृथ्वी के समानान्तर – सूर्य, चन्द्र व समस्त ग्रह – नक्षत्रों की गति के अनुरूप समय की लघुतम ईकाई को ध्यान में रखकर भारतीय पञ्चाङ्ग में वर्ष की कालगणना का प्रतिपादन दृष्टव्य होता है। इस दिशा में महान गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री भास्कराचार्य का योगदान अप्रतिम है। उन्होंने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सूर्योदय से सूर्यास्त तक कालखण्ड की वैज्ञानिक विवेचना करते हुए दिन, महीने और वर्ष की गणना करते हुए ‘पञ्चाङ्ग’ की रचना की थी। वर्तमान में गेग्रोरियन कैलेण्डर के प्रचलन के बाद भी भारतीय जीवन पद्धति में भारतीय पञ्चाङ्ग प्रणाली के अनुसार ही शुभ मुहूर्त देखकर समस्त शुभकार्य एवं प्रयोजन सम्पन्न कराए जाते हैं। संस्कारवान श्रेष्ठ समाज की रचना के उद्देश्य से महान पूर्वजों द्वारा बनाए गए सोलह संस्कारों यथा —गर्भाधान , पुंसवन , सीमन्तोन्नयन , जातकर्म, नामकरण संस्कार,निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन , चूड़ाकर्म , विद्यारम्भ , कर्णवेध , यज्ञोपवीत ,वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह व अंत्येष्टि ; इन समस्त संस्कारों को भारतीय तिथि, मुहूर्त देखकर सम्पन्न कराया जााता है।

भारतीय संस्कृति में ‘शक्ति’ का बहुत बड़ा महत्व है। शक्ति की साधना और आराधना ने भारतीय चिति को ज्ञान- विज्ञान के सर्वोच्च – सर्वोत्कृष्ट वरदान दिए हैं। चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से ही माँ आदिशक्ति दुर्गा भवानी की उपासना का पावन पर्व चैत्र नवरात्रि भी प्रारम्भ होता है।प्रतिपदा से लेकर नवमी तक प्रमुख रूप से माता के नौ स्वरूपों की आराधना की जाती है। माँ के नव स्वरुपों का ध्यान इस मन्त्र से किया जाता है —

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।

भारतीय परम्परा में शक्ति स्वरूपा माता की पूजा और नौ दिनों में कन्याओं को देवी का स्वरूप मानकर कन्या पूजन करना हमारी संस्कृति के सर्वोच्च जीवनादर्शों को प्रस्तुत करता है भारतीय संस्कृति एवं परम्परा में – नारी शक्ति का स्वरूप जीवन के मूल – आधार के रूप में है। जो अपनी शक्ति से सृजन का संसार रचती है। नवरात्रि का पर्व हमारी उसी महान सभ्यता के साथ हमें एकमेव करता है । जो माता के रूप में शक्ति की भक्ति करता हुआ लोकमङ्गल की कामना करता है।

इतना ही नहीं नवसम्वत्सर की चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि ब्रम्हा जी की सृष्टि रचना के साथ – साथ चतुर्युगों — सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग की वैशिष्ट्य से भी जोड़ती है। यह तिथि हमारे गौरवशाली अतीत के साथ – हमारा परिचय करवाती है। यह तिथि यह बोध करवाती है कि – हमारी संस्कृति के महान आदर्श कौन थे? कौन हैं? और उनका पथानुसरण करते हुए युगानुकुल ढंग से हमें निरन्तर गतिमान रहना चाहिए।

त्रेता में यह तिथि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम से जुड़ती है। अपने चौदह वर्ष का वनवास काटने एवं अधर्म रुपी रावण का समूल संहार करने के पश्चात भगवान अयोध्या लौटे। तदुपरान्त चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि को उनका वैदिक विधि विधान के‌ साथ राज्याभिषेक हुआ। रामराज्य के शंखनाद से चहुंओर आनंद की लहर दौड़ गई। बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामराज्य के विषय में लिखा—

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

इतना ही नहीं चैत की नवमी तिथि को भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का प्राकट्योत्सव भी है। अहा! कितना सुन्दर समन्वय है न! कि चैत्र की प्रतिपदा और नवमी तिथियाँ – ये दोनों प्रभु के जीवन से जोड़ती हैं। जहां श्री राम नवमी को भगवान का प्राकट्य पर्व है तो प्रतिपदा रामराज्य के राज्याभिषेक का पर्व। वहीं द्वापर में महाभारत युद्ध पूर्ण होने पर भगवान श्री कृष्ण के पाञ्चजन्य घोष के साथ ही युधिष्ठिर का राजतिलक हुआ। उन्होंने राजसूय यज्ञ सम्पन्न करने के पश्चात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से ही युधिष्ठिर सम्वत का शुभारम्भ भी किया था। वरुणदेव के अवतार माने जाने वाले भगवान झूलेलाल के प्राकट्य पर्व ‘चेटी चंड’ को सिंधी समाज के साथ साथ समूचा भारत मनाता है। यह पर्व प्रेम सद्भाव एकत्व एवं सौहार्द के साथ जीवमात्र के प्रति प्रेम की कामना करता है।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को ही भूतभावन बाबा महाकाल की नगरी अवंति (उज्जयिनी) में महान सम्राट राजा विक्रमादित्य ने विक्रम सम्वत का शुभारम्भ किया था। उन्होंने पतित पावनी शिप्रा के तट पर सम्वत पर्व मनाया गया था। वर्तमान में यही विक्रम सम्वत भारतीय जीवन पद्धति में सर्वाधिक प्रचलन में है। आधुनिक सन्दर्भ में हिन्दू नववर्ष के रूप में विक्रम सम्वत के साथ ही नवसम्वत्सर का शुभारम्भ पर्व सर्वत्र मनाया जाता है।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अपने आप में संस्कृति एवं विचारों के वैशिष्ट्य को समेटे हुए है। इसी तिथि को महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना की थी। सिख पंथ की दशम गुरु परम्परा के दूसरे गुरू – गुरु अंगदेव का जन्मपर्व भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही हुआ था। वहीं विश्व के अपने आप में अनूठे – स्वयंसेवी सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म भी इसी दिन हुआ था। उन्होंने 27 सितम्बर 1925 को विजयादशमी के दिन हिन्दू समाज को संगठित – सर्वशक्तिमान बनाने के उद्देश्य से संघ की स्थापना की थी। उनकी उसी विशद् दृष्टि से निर्मित रा.स्व.संघ राष्ट्रभक्त व्यक्तित्व निर्माण के पुनीत कार्य में सतत् जुटा हुआ है।

नवसम्वत्सर – हिन्दू नववर्ष अपनी महान विरासत व वैज्ञानिक पद्धति के साथ – साथ अपनी बहुवर्णी उत्सवधर्मिता के माध्यम से समूचे भारत को एकसूत्र में पिरोता है। यह पर्व देश के विभिन्न हिस्सों में यथा —दक्षिण भारत क्षेत्र के- आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल व कर्नाटक इसे ‘उगादि पर्व’ व कश्मीर में ‘नवरेह’ तो वहीं पूर्वोत्तर क्षेत्र के असम में ‘बिहू’ और मणिपुर में माह के पहले दिन के रूप में – सजीबू नोंग्मा, पनबा या मीती चेरोबा सा सजीबू चेरोबा आदि के रूप में मनाया जाता है।

इसके साथ ही तमिलनाडु में ‘पुतुहांडु’ और केरल में ‘विशु’ के रूप में भी नवसम्वत्सर मनाने की परम्परा देखने को मिलती है। महाराष्ट्र में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन उत्सव के रूप में ‘गुड़ी पड़वा’ हर्षोल्लास के रंग में डूबकर मनाया जाता है। इस उल्लास पर्व का क्षेत्र भगवान परशुराम की भूमि गोवा , कोंकण क्षेत्र तक विस्तृत है। वहीं पंजाब में ‘बैसाखी’ के रूप में और बंगाल प्रांत में ‘पोहेला बैसाखी ‘ या ‘नबा बरसा’ के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

ज्ञान – विज्ञान एवं उत्सव के विविध रङ्गों से सुसज्जित हिन्दू नववर्ष मनुष्य व प्रकृति के साथ एकात्म स्थापित करने वाला है। यह पर्व मनुष्य की सर्वोच्च मेधा के प्रतीक को अभिव्यक्त करता है। हमारी ऋषि परम्परा ने युगों पहले जिस वैज्ञानिक चिंतन पद्धति को जीवन में ढाल दिया था। वह वर्तमान में भी आश्चर्य का विषय है। सोचिए! प्रकृति के सूक्ष्म परिवर्तन, वैज्ञानिकीय कालगणना के साथ ही हिन्दू नववर्ष – नवसम्वत्सर का शुभारम्भ होता है। अर्थात् प्रकृति के नवोन्मेष के सङ्ग – नवसम्वत्सर का आगमन, जो कि वैज्ञानिक अनुसंधानों की कसौटी पर पूर्णतः खरा है। यह समूचे राष्ट्र के लिए गौरव का विषय है कि हमारे पास ‘स्वत्वबोध’ के महान आदर्श एवं जीवन पद्धतियाँ हैं, जो लोकल्याण की भावना से परिपूर्ण हैं। हमारी श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति व्यष्टि -समष्टि एवं परमेष्ठि के साथ तादात्म्य एवं साहचर्य निरुपित करती है । उसी संस्कृति का शाश्वत संवाहक हिन्दू नववर्ष- नवसम्वत्सर है। जो लोकमङ्गल के विपुल उत्साह, उत्सवधर्मी जीवन और सृजन का विराट संसार रचाए बसाए हुए ‘स्व’ को पहचानकर कृण्वन्तो विश्वमार्यम का चिर सनातन संदेश दे रहा है।

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राष्ट्रनिष्ठ व शुचितापूर्ण पत्रकारिता के प्रखर स्तम्भ गणेश शंकर विद्यार्थी https://visionviksitbharat.com/ganesh-shankar-vidyarthi-a-pillar-of-nationalistic-and-ethical-journalism/ https://visionviksitbharat.com/ganesh-shankar-vidyarthi-a-pillar-of-nationalistic-and-ethical-journalism/#respond Mon, 24 Mar 2025 20:35:42 +0000 https://visionviksitbharat.com/?p=1509   जिस प्रकार लोकमान्य तिलक जी द्वारा सम्पादित ‘मराठा’ एवं ‘केसरी’ ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। उसी प्रकार विद्यार्थी जी द्वारा सम्पादित ‘प्रताप’ ने राष्ट्रवादी  हिंदी पत्रकारिता…

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जिस प्रकार लोकमान्य तिलक जी द्वारा सम्पादित ‘मराठा’ एवं ‘केसरी’ ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। उसी प्रकार विद्यार्थी जी द्वारा सम्पादित ‘प्रताप’ ने राष्ट्रवादी  हिंदी पत्रकारिता में  अनन्य प्रतिष्ठा पाई।

 

स्वातन्त्र्य आन्दोलन के क्रान्तिकारी सम्पादक पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने अपने समूचे जीवन को स्वतन्त्रता की बलिवेदी को होम कर दिया। वे राष्ट्र धर्म का निर्वहन करते हुए लेखनी व आन्दोलन के दोनों मोर्चों में निर्भीक योध्दा की भांति डटकर खड़े थे। नवम्बर 1913 को उनके द्वारा साप्ताहिक प्रताप के प्रथमांक में ‘कर्मवीर महाराणा प्रताप’ शीर्षक से लिखे गए लेख की यह पँक्ति उनके सर्वोच्च आदर्श को प्रतिबिम्बित करती है — “ जो सिर स्वतन्त्रता देवी के सामने झुका, याद रखो, उसे अधिकार नहीं कि संसार की किसी शक्ति के सामने झुके।”

फिर उनकी लेखनी और ध्येयनिष्ठा ने क्रांतिकारी विचारों का चारों ओर अथाह प्रवाह निर्मित कर दिया। पत्रकारिता में उनके आदर्श को खड़ा करने में – ‘कर्मयोगी’ पत्र के सम्पादक पं. सुन्दरलाल और लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी की भूमिका थी। उन्होंने जहाँ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सानिध्य में हिन्दी भाषा के संस्कार सीखे। वहीं पं.सुन्दरलाल से ‘कर्मयोगी’ की भाँति ही राष्ट्र एवं समाज के उत्थान व स्वातन्त्र्य के लिए विचारों का प्रखर स्वर अपनाया। और उनके ये तेवर महामना पं मदनमोहन मालवीय के पत्र ‘अभ्युदय’ में भी निरन्तर परिष्कृत होते रहे। तत्पश्चात नौ नवम्बर 1913 को कानपुर से शुरू हुए ‘प्रताप’ की अठारह वर्षों तक चली ‘स्वातन्त्र्य यात्रा’ में यह क्रम दिनानुदिन अपने तीव्र वेग को प्राप्त करता गया। उनकी पत्रकारिता का ध्येय सुस्पष्ट था – वह ध्येय था स्वाधीनता के महत् उद्देश्य को प्राप्त करना । और समाज के वंचित – पीड़ित, उपेक्षितों की आवाज़ बनना। किसान – मजदूरों को न्याय दिलाना। चाहे इसके दोषी ब्रिटिश हुक्मरान रहे हों, याकि देशी रियासतों के राजा- रजवाड़े। याकि शोषणकारी सामन्त।

विद्यार्थी जी ने जिस मुखरता के साथ ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध पत्रकारिता को जन आन्दोलन बनाया। उसी तरह उन्होंने – भारतीय समाज में व्याप्त रुढ़ियों, कुरीतियों एवं समस्याओं पर तीखे तेवर में अपनी कलम चलाई। और समाज को आत्मचिंतन के लिए झकझोर कर रख डाला था। पत्रकारिता के आदर्श एवं दायित्वबोध को लेकर वे बेहद सजग एवं स्पष्टवादी थे। सन् 1930 में उन्होंने लिखा था — “पत्रकार की समाज के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है, वह अपने विवेक के अनुसार अपने पाठकों को ठीक मार्ग पर ले जाता है, वह जो कुछ लिखे प्रमाण और परिणाम काविचार रखकर लिखे, और अपनी गति-मति में सदैव शुद्ध और विवेकशील रहे। पैसा कमाना उसका ध्येय नहीं है, लोक सेवा उसका ध्येय है।”

उनकी यही प्रखर विचार रश्मि ने उन्हें इतना क्रान्तिकारी बना दिया था कि – उन्होंने सत्य को आधार बनाकर राष्ट्र के प्रति असंदिग्ध श्रध्दा एवं समर्पण के साथ गतिमान रहे। उन्हें कोई भी परिस्थितियां – कभी भी उनके कर्त्तव्यपथ सू विचलित न कर सकीं। उनके ओजस्वी विचारों से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने सुनियोजित ढंग से उन्हें गिरफ्तार किया। जेल की यातनाएं दी। लेकिन विद्यार्थी जी ‘लोकसेवा-राष्ट्रसेवा’ का लक्ष्य लिए निरन्तर गतिशील बने रहे। प्रताप में उनके जाज्वल्यमान क्रान्तिकारी तेवरों पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा था —“उनके उग्र लेख देखकर मैं कभी-कभी कांप उठता था।’ मगर ओज और सत्याग्रह ही ‘प्रताप’ और संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी की ज्वलंत पहचान थी। लप्पो-चप्पो का स्वर उसके चरित्र के लिए सर्वथा विजातीय था। सतेज सत्य के बल पर ही ‘प्रताप’ लोकप्रियता के उत्कर्ष पर पहुंचा था और उसकी लोकप्रियता का स्तर यह था कि हिंदी भाषी प्रदेश की जनता ‘समाचारपत्र का अर्थ’ केवल ‘प्रताप’ ही समझती थी । और यह धारणा गणेशशंकर के लोकमानस के प्रतिनिधित्व करने के सामर्थ्य को दर्शाती है। ”

प्रसिद्ध पत्रकार रहे मुकुटबिहारी वर्मा ने भी गणेश शंकर विद्यार्थी जी की गौरवपूर्ण राष्ट्रपरक विशद् विचार दृष्टि पर लिखा – “ ‘प्रताप’ के लिए पत्रकारिता व्यवसायपरक नहीं लोक-कल्याणार्थ थी। इसीलिए आर्थिक प्रलोभनों से मुक्त रहते हुए अन्याय-अत्याचार के खिलाफ सब तरह के बलिदान के लिए वह तैयार रहा। फलत: कई रियासतों में उस पर प्रतिबंध लगे, तरह- तरह की धमकियां दी गईं और मुकदमे भी चले। साथ ही अर्थ प्रलोभन भी उसके सामने आए। पर वह बिना झुके और बगैर प्रलोभन में आए अपने रास्ते चलता रहा; यहां तक कि उन लोगों पर हुए अन्याय के विरुद्ध भी उसने अपनी आवाज उठाई जिनके अन्याय के खिलाफ वह लड़ रहा था और खुद जिनके अन्याय का शिकार था।”

देश के जातीय स्वाभिमान पर आधारित उनकी अग्निधर्मी लेखनी ने अपनी परिपाटी का सृजन किया और राष्ट्रीय परिदृश्य के प्रत्येक घटनाक्रमों एवं विषयों को मुखरता के साथ उठाया। उन्होंने राष्ट्र की चेतना को जागृत करने के लिए विचारों का ज्वार उत्पन्न किया। यह उनकी उसी राष्ट्रनिष्ठा का परिणाम था कि — जिस प्रकार लोकमान्य तिलक जी द्वारा सम्पादित ‘मराठा’ एवं ‘केसरी’ ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता का श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। उसी प्रकार विद्यार्थी जी द्वारा सम्पादित ‘प्रताप’ ने हिन्दी भाषा में राष्ट्रवादी पत्रकारिता में अपनी अनन्य प्रतिष्ठा पाई। और जन- जन की आवाज़ के रूप में जाना जाने लगा।

विद्यार्थी जी की ‘स्वराज्य’ विषयक विचार दृष्टि का दर्शन ‘प्रताप’ में 14 जुलाई 1924 के ‘स्वराज्य किसके लिए?’ शीर्षक से लिखे लेख के अंश से मिलता है —

“इस युग में, केवल भारतवर्ष के करोड़ों नर-नारियों के ललाट पर ये शब्द नहीं हैं कि जब सब आजाद होंगे तब तुम्हीं गुलाम बने रहोगे, तुम्हारी राह में रोड़े अटकाएंगे और तुम्हें अज्ञान और अंधकार में रखेंगे। यदि सचमुच इस देश के भाग्य में ही बदा है, तो हम यहीं कहेंगे, हमें स्वराज्य नहीं चाहिए। हमारे करोड़ों भाई, यदि गुलामी के बंधन में जकड़े हुए हैं, यदि वे अज्ञान और अंधकार में पड़े हैं, यदि उन्हें पेट भर खाने को नहीं मिलता और पहनने भर को कपड़ा, यदि उन्हें रहने के लिए जगह नहीं मिलती और चलने के लिए राह तो—उस दिशा की ओर जिधर हमारे इने-गिने आदमी सुख से समय बिताते हों और प्रभुता के अधिकारी बने हुए हों-उधर हम अपना मुंह भी नहीं करना चाहते। हम तो उसी ओर जाएंगे, उसी ओर रहेंगे-सड़ने, घुटने, और गुमनामी में मर जाने तक के लिए जिधर हमारे शरीर, हमारे हृदय, हमारे दीन-हीन और पीड़ित करोड़ों भाई होंगे। उस दुःख में एक शांति होगी, और उस सुख में करोड़ों के कंकाल पर भोगे जाने वाले थोड़े से आदमियों के उस सुख में- एक गहरी ग्लानि।”

उपर्युक्त उद्धृत अंश से यह सुस्पष्ट होता है कि – विद्यार्थी जी केवल ‘राजनैतिक स्वतन्त्रता ‘ की भी बात नहीं कहते थे। बल्कि उनकी दृष्टि में ‘स्वाधीनता’ यानी ‘स्वराज्य’ अर्थात् — भारतीय जनमानस के सर्वांगीण विकास एवं कल्याण के लिए वे प्रतिबद्ध थे। विद्यार्थी जी लोकमान्य तिलक के प्रखर – मुखर राष्ट्रवादी विचारों के पक्षधर थे। लेकिन दूसरी ओर महात्मा गाँधी की ‘अहिंसा’ की अवधारणा पर भी उतना ही विश्वास रखते थे। इतना ही नहीं गांधीजी के प्रति उनकी निष्ठा ‘सत्याग्रह’ आन्दोलन के दौरान सर्वाधिक मुखरता के साथ देखने को मिली थी। उनके सम्पादन में ‘प्रताप’ ने सत्याग्रह आन्दोलन को‌ लेकर व्यापक जनचेतना का प्रसार किया था। याकि फिर बात देश के किसानों या मजदूरों की हो ; उन्होंने भारत के कृषक व श्रमिक – इन दोनों वर्गों के लिए भी अपनी लेखनी और आन्दोलन दोनों से लड़ाई लड़ी थी। उन्होंने किसानों पर होने वाले अत्याचारों के लिए रियासतों के राजाओं, सामंतों एवं अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोला।

होमरुल आन्दोलन के समय ही कानपुर में मिल मालिकों के विरुद्ध हुई हड़ताल का गणेश जी ने नेतृत्व किया था। इसमें 25000 की संख्या में मजदूर शामिल थे। वहीं बिहार के चम्पारण में अंग्रेजों द्वारा किसानों के शोषण के विरोध में जब गांधी जी वहां पहुंचे। तब प्रताप ने उस मुद्दे को उठाया। रायबरेली के निरंकुश जमींदार वीरपाल सिंह द्वारा किसानों पर गोली चलवाने की घटना को — उन्होंने ‘प्रताप’ में विस्तार से प्रकाशित किया था। इसी के चलते अंग्रेज सरकार व वीरपाल सिंह द्वारा सुनियोजित ढंग से उन पर मानहानि का मुकदमा दर्ज किया गया था। इसमें उन्हें आठ महीने की सजा हुई थी।

वे किसानों से जुड़े हुए ब्रिटिश सरकार के दमनकारी – शोषणकारी निर्णयों का निरन्तर निर्भीकतापूर्वक प्रतिकार करते थे। वे स्वयं को एक पत्रकार या राजनेता के स्थान पर गर्वपूर्वक ‘किसान’ कहा करते थे। किसानों – मजदूरों के सच्चे हितचिन्तक के रूप में वे प्रसिद्ध हो चुके थे। उनकी हत्या के बाद एक श्रद्धांजलि सभा में पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने विद्यार्थी जी के विषय में कहा था —“आज उस दीनबंधु के लिए किसान रो रहे हैं। कौन उनकी उद्गार-ज्वाला को शांत करने के लिए स्वयं आग में कूद पड़ेगा? मजदूर पछता रहे हैं, कौन उन पीड़ितों का संगठन करेगा, मवेशीखाने से भी बदतर देशी राज्यों के निवासी अश्रुपात कर रहे हैं, कौन उनका दुखड़ा सुनेगा और सुनाएगा? राजनीतिक कार्यकता रो रहे हैं, कौन उन्हें आश्रय देकर स्वयं आफत में फंसेगा? कौन उनके कंधे से कंधा मिलाकर स्वातंत्र्य संग्राम में चलेगा? और एक कोने में पड़े हुए उनके पत्रकार बंधु भी अपने को निराश्रित पाकर चुपचाप चार आंसू बहा रहे हैं। आपातकाल में कौन उन्हें सहारा देगा, किससे वे दिल खोलकर बात कहेंगे, किसे वे अपना बड़ा भाई समझेंगे, और कौन छुटभइयों का इतना खयाल करेगा ?”

उन्होंने ‘प्रताप’ में उस समय चलने वाली मुस्लिम तुष्टिकरण की निरन्तर भर्त्सना करते थे। और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए उन्होंने इस बात पर जोर डाला था कि – मुसलमानों को अपने मूल यानि भारतीय संस्कृति पर आधारित रास्ते में चलना चाहिए। हिन्दू – मुस्लिम समस्या पर वे अत्यन्त स्पष्ट थे। वे दूरदर्शी थे। अतएव उन्होंने प्रताप में लिखा था — “शुभ होगा वह दिन तब इस देश के मुसलमान यह समझने लगेंगे कि हमारा नाता इस देश के हिंदुओं से तुर्कों और काबुलियों की अपेक्षा अधिक बड़ा और स्वाभाविक है, और जब वे उसी प्रकार जिस प्रकार रोम और ग्रीस के वर्तमान ईसाई, निवासी अपने गैर-ईसाई पूर्वजों की कीर्ति और कला को अपनाते हैं, भारतवर्ष की प्राचीन कीर्ति एवं कला को अपनाने लगेंगे।”

वे जिस साम्प्रदायिक तुष्टिकरण के विरुद्ध लड़ते रहे। बाद में उसी तुष्टिकरण एवं मुस्लिम हठधर्मिता ने देश को विभाजन की त्रासदी में झोंका। और नरसंहार की विभीषिका से देश को रक्त रंजित कर दिया। इतना ही नहीं गणेश शंकर विद्यार्थी जी की हत्या भी कानपुर के साम्प्रदायिक दंगे में अज्ञात धर्मांध मुसलमानों द्वारा 25 मार्च 1931 को की गई थी। जबकि विद्यार्थी जी दंगे से हिन्दू – मुसलमानों को सुरक्षित लाने में जुटे हुए थे।

विद्यार्थी जी की पत्रकारिता के कई आयाम थे। वे हिन्दी के प्रति विशेष निष्ठा रखते थे। यह बात कम लोगों को ही पता होगी मुंशी प्रेमचंद को उर्दू से हिन्दी की ओर लाने में विद्यार्थी जी का ही अतुलनीय योगदान था। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि – मुंशी प्रेमचंद की पहले -पहल कई कहानियां 1920 —1925 के दौरान ‘प्रभा’ में ही प्रकाशित हुईं थी। इस समय ‘प्रभा’ कानपुर से ‘प्रताप’ प्रेस से प्रकाशित होती थी। 1929 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गोरखपुर अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए विद्यार्थी जी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के विषय में कहा था — “हिंदी राष्ट्रभाषा बने, इसका यह अर्थ कदापी नहीं कि हिंदू हिंदू होने के नाते हिंदी सीखें। मेरे लिए तो हिंदी एक संस्कृति की प्रतीक है और केवल हिंदी के द्वारा ही बिखरे हुए भारत में एकत्व की भावना भरी जा सकती है और सबको एक सूत्र में आबद्ध करने का हिंदी एकमेव साधन है।”

इसी तरह उन्होंने राष्ट्र के स्वत्वबोध को जगाते हुए राष्ट्र भाषा के सन्दर्भ में कहा था—

“ राजनीतिक पराधीनता पराधीन देश की भाषा पर अत्यंत विषम प्रहार करती है। विजयी लोगों की विजय-गति विजित के जीवन के प्रत्येक विभाग पर अपनी श्रेष्ठता की छाप लगाने का सतत प्रयत्न करती है। स्वाभाविक ढंग से विजितों की भाषा पर उनका सबसे पहले वार होता है । भाषा जातीय जीवन और उसकी संस्कृति की सर्वप्रधान रक्षिका है, वह उसके शील का दर्पण है, उसके विकास का वैभव है। भाषा जीती, और सब जीत लिया। फिर कुछ भी जीतने के लिए शेष नहीं रह जाता।विजितों के मुंह से निकली हुई विजयी जनों की भाषा उनकी दासता की सबसे बड़ी चिह्नानी है- पराई भाषा चरित्र की दृढ़ता का अपहरण कर लेती है, मौलिकता का विनाश कर देती है और नकल करने का स्वभाव बना करके उत्कृष्ट गुणों और प्रतिभा से नमस्कार करा देती है।”

वे पत्रकारिता को देश सेवा का सबसे अच्छा माध्यम मानते थे। उनकी पत्रकारिता के सिद्धान्त सत्यनिष्ठा, राष्ट्रनिष्ठा, स्वदेशी एवं स्वराज्य की संकल्पना पर आधारित थे। उनके ध्येय में भारतीय समाज का उत्थान एवं स्वाधीनता की चैतन्यता थी। उन्होंने भारतीय समाज की ‘न्यासत्व’ की पध्दति को ‘प्रताप’ में अपनाया। और ‘प्रताप ट्रस्ट’ का गठन किया था। 15 मार्च 1919 को रजिस्टर्ड प्रताप ट्रस्ट में पाँच सदस्य थे — गणेश शंकर विद्यार्थी, शिवनारायण मिश्र ‘वैद्य’, मैथिलीशरण गुप्त, डॉ. जवाहरलाल रोहतगी और लाला फूलचंद। विद्यार्थी जी की पत्रकारिता में ‘प्रताप’ की यात्रा के साथ – पं.माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, श्रीकृष्ण दत्त पालीवाल, श्रीराम शर्मा, देवव्रत शास्त्री, सुरेशचंद्र भट्टाचार्य और युगल किशोर सिंह शास्त्री इत्यादि का नाम प्रमुख सहयोगी पत्रकारों के रूप में जाना जाता है।

सरस्वती से अभ्युदय एवं तदुपरान्त ‘प्रताप’ व ‘प्रभा’ के माध्यम से उन्होंने भारतीय पत्रकारिता की क्रान्तिकारी धुरी का निर्माण किया। और स्वातन्त्र्य समर में भारतीय चेतना को जागृत करने के अभूतपूर्व पुरुषार्थ को उन्होंने निभाया। 18 वर्ष के प्रतापी ‘प्रताप’ ने भारत को ‘स्वत्व-स्वाभिमान- स्वदेशी – स्वराज्य – स्वाधीनता एवं स्वधर्म ‘ का महान पथ प्रशस्त किया। युगबोध दिशाबोध प्रदान किया। गणेश शंकर विद्यार्थी जी के अनन्य सहयोगी -मित्र दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘कर्मवीर’ में 28 मार्च 1935 को उनका स्मरण करते हुए लिखा —

“कठिनाइयों में उन दिनों संकटों की अपेक्षा संन्यास अधिक यशस्वी होता था। गणेश जी ने इस प्रवाह को सीधा संकटों की ओर घुमा दिया। जमानतें, तलाशियां, मुकदमे, सजा-दंड देकर शासक सुखी होते, दंड पाकर गणेश गर्वीले होते क्योंकि गणेश जी संकटों में चाहे जो सोचते, किंतु सहस्र-सहस्र हिंदी भाषी, गणेश जी और ‘प्रताप’ के संकटों के साथ सोचते और सेवा के लिए प्रस्तुत रहते। पत्रकार-कला के हिंदी स्वरूप के ‘प्रताप’ नामक राष्ट्र मंच से गणेशी जी ने कायरों को, देश-घातकों को, महलों को, मुकुटों को, अत्याचारियों को और स्वार्थियों को लगातार चुनौतियां दीं और परिणाम में तलाशियां, अपमान, अर्थ हानि और कारागर सहे।”

 

सन्दर्भ ग्रन्थ :

गणेश शंकर विद्यार्थी और स्वतन्त्रता आन्दोलन, लेखक – विष्णु कुमार राय

पत्रकारिता के युग निर्माता गणेश शंकर विद्यार्थी — सुरेश सलिल

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राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक महाकुंभ पर्व https://visionviksitbharat.com/the-mahakumbh-festival-a-symbol-of-the-cultural-unity-of-the-nation/ https://visionviksitbharat.com/the-mahakumbh-festival-a-symbol-of-the-cultural-unity-of-the-nation/#respond Tue, 04 Feb 2025 12:20:45 +0000 https://visionviksitbharat.com/?p=1075   कुंभ पर्व भारत की सहस्त्राब्दियों पूर्व की सांस्कृतिक एकता – एकात्मता, समरसता और अखण्डता का जीवन्त प्रतीक है। कुंभ का सनातन प्रवाह विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में कभी नहीं…

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कुंभ पर्व भारत की सहस्त्राब्दियों पूर्व की सांस्कृतिक एकता – एकात्मता, समरसता और अखण्डता का जीवन्त प्रतीक है। कुंभ का सनातन प्रवाह विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में कभी नहीं टूटा। क्रूर-बर्बर इस्लामिक और ब्रिटिश आक्रमणों के कालखंड में भी भारत अपनी ‘स्व’ की पताका को लिए दृढ़ अडिग खड़ा रहा।

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

भारत की सांस्कृतिक धारा में कुंभ महापर्व का अपना वैशिष्ट्य है। ये महापर्व केवल धार्मिक और आध्यात्मिक तपश्चर्या की प्राणवान धरोहर ही नहीं हैं।अपितु भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रकटीकरण और एकात्मता की भावाभिव्यक्ति के श्रेष्ठ आदर्शों को प्रस्तुत करता है। कुंभ का भारतीय समाज में जितना आदर धर्मनिष्ठा के रूप में है। ठीक, उतना ही राष्ट्र की सांस्कृतिक और सामाजिक एकजुटता के साक्षात् दर्शन को निरुपित करने के रूप में भी है। भारतवर्ष में जितने भी पर्व, त्योहार, मेले हैं ; इन सबके पीछे हमारे महान पूर्वजों की अन्तश्चेतना और सामाजिकता की वैज्ञानिकता है। जो सबको एकसूत्र में गुंफित कर सर्जन और निर्माण का पथ प्रशस्त करती है।महीनों चलने वाले कुंभ महापर्व में ईश्वरीय शक्तियों के साक्षात्कार का तो पथ प्रशस्त ही होता है। साथ ही व्यक्तिगत और सामाजिक आचरणों की दशा और दिशा तय होती है।जो समाज जीवन के विविध पक्षों में उपयोगि सिद्ध होती है।

वस्तुत: पवित्र भारत भूमि तो युगों-युगों से ईश्वर की लीला भूमि- पुण्यभूमि रही है। ये वही भूमि है जहां ईश्वर भी मनुज रुप में अवतार लेते रहे हैं। ऋषि- महर्षि अपनी मेधा और तपबल से राष्ट्र को पोषित करते रहे हैं। यहां के कंकर-कंकर में ‘शंकर’ अर्थात् भगवान ‘शिव’ तथा बच्चे-बच्चे में ‘राम’ और बालिका में ‘देवि’ अर्थात् ‘शक्ति’ को देखने और पूजने की दृष्टि और परंपरा विकसित हुई है। प्रकृति के पञ्च तत्वों यथा — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश को ईश्वर माना गया।नदियों को माँ की संज्ञा देकर उनकी पूजा की जाती है। यह अगर कहीं संभव हो सकता है तो वो केवल भारत भूमि ही है। जब-जब पृथ्वी पर अधर्म का भार बढ़ा-तब-तब परमात्मा ने हर युग में अवतार लिए। पृथ्वी के संताप का हरण कर धर्म की संस्थापना की। भारतीय जीवन दर्शन में प्रायः चतुर्युगों और चार पुरुषार्थों की मान्यता है। सतयुग, त्रेता द्वापर और वर्तमान कलियुग तो वहीं — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रुपी चार पुरुषार्थ हैं। भगवान विष्णु के दशावतारों के रुप में ईश्वर ने यहां समय-समय पर हर युग में धर्म का महत् संदेश दिया। प्राणिमात्र के कल्याणार्थ व्यष्टि-समष्टि और परमेष्ठि के एकीकृत स्वरूप को प्रकट किया। इसी धरा धाम में-इसी पुण्यभूमि में भगवान श्रीरामचन्द्र जी और गीतोपदेशक -धर्मोपदेशक भगवान श्रीकृष्ण के आदर्श कण-कण में व्याप्त हुए ।

जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए भारतीय जन-जीवन के अंदर गहरे समाए हुए हैं। इसी लीलाभूमि में ऋषि-मुनियों के तप, त्याग, वैराग्य के महान मूल्यों और आदर्शों से श्रेष्ठ समाज की रचना हुई। ज्ञान-भक्ति और अध्यात्म की त्रिवेणी प्रवाहित हुई। प्रभु राम के पूर्वज भागीरथ की कठोर तपस्या से ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को माँ गंगा भगवान शिव की जटाओं से होते हुए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुईं। इसी क्रम में समुद्र मंथन के समय अमृत की चार बूंदों में से एक-एक बूंद प्रयागराज और हरिद्वार में गंगा में, एक बूंद उज्जयिनी में क्षिप्रा में और नासिक में गोदावरी में गिरा। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार बृहस्पति के कुंभ राशि में और सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा के किनारे पर कुंभ आयोजित होता है। इसी प्रकार बृहस्पति के मेष राशि में प्रविष्ट होने के साथ -साथ सूर्य और चंद्र के मकर राशि में होने पर प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुंभ का आयोजन होता है। वहीं नासिक में गोदावरी के तट पर बृहस्पति और सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने पर कुंभ का आयोजन होता है।

उज्जयिनी में क्षिप्रा तट पर कुंभ बृहस्‍पति के सिंह राशि में और सूर्य के मेष राशि में प्रवेश करने पर आयोजित होता है। चूंकि दानवों से अमृत कुंभ को बचाने के लिए देवताओं के बीच 12 दिन का संघर्ष चला था। देवों के उन 12 दिनों की मनुष्य के 12 वर्षों के रूप में गणना की गई । इसी विधान के चलते प्रत्येक 12 वर्ष में कुंभ पर्व का आयोजन होता है।

प्रयाग राज में कुंभ का वैशिष्ट्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां गंगा-यमुना और सरस्वती तीनों का संगम होता है। श्रीरामचरितमानस में बाबा गोस्वामी तुलसीदास ने प्रयागराज और कुंभ की महिमा के विषय में लिखा —

माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥

अर्थात् – माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं

आगे बाबा गोस्वामी तुलसीदास – प्रयागराज की महिमा बतलाते कहते हैं कि —

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥

अर्थात् — पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है? ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी ने भी सुख पाया।

भारतीय परंपरा के इन्हीं मानकों और मूल्यों के वाहक कुंभ का महात्म्य और उसकी पवित्रता भारतीय जनजीवन में गहरे रची बसी हुई है। कुंभ पर्व भारत की सहस्त्राब्दियों पूर्व की सांस्कृतिक एकता – एकात्मता, समरसता और अखण्डता का जीवन्त प्रतीक है। कुंभ का सनातन प्रवाह विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में कभी नहीं टूटा। क्रूर-बर्बर इस्लामिक और ब्रिटिश आक्रमणों के कालखंड में भी भारत अपनी ‘स्व’ की पताका को लिए दृढ़ अडिग खड़ा रहा। माँ गंगा की भांति अविरल स्वच्छ, धवल और कान्तिमय स्वरुप में ‘कुंभ पर्व’ प्रवहमान रहा आया। यदि हम गहराई के साथ कुंभ महापर्व के विविध पहलुओं पर दृष्टिपात करें तो कुंभ महापर्व भारत की सांस्कृतिक एकता के शाश्वत संगीत के रूप में दिखाई देता है। जो राष्ट्र की विविधता में एकता की भावना के स्वर को गुंजित करता है।मूल्यों की प्रेरणा-प्रकटीकरण के विराट और अनंत वैशिष्ट्य-स्वरुप की प्राणवान झांकी प्रस्तुत करता है।

कुंभ महापर्व की पावन झंकृति के साथ राष्ट्र माँ गंगा के पावन तट पर विशुद्ध धार्मिकता और आध्यात्मिकता के शंखनाद के यज्ञ- आहुतियों, भजन- संकीर्तन और धर्मानुसार आचरण के साथ भारत गतिशील रहा आया। संतों के आश्रमों में भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक लहराते भगवा ध्वज, वेदमन्त्रों की ह्रदयङ्गम गुञ्जार, संतों के ललाट पर चमकते शैव, वैष्णव , शाक्त और समस्त भारतीय परंपराओं के सुशोभित चंदन ; ये सहज ही दिखाई देने वाले सारे दृश्य अद्भुत-अनुपमेय रहते हैं। यह इसी का पुण्य प्रताप रहा है कि — कुंभ के दौरान विद्वतजनों की सभाओं, धर्मोपदेश और सत्संग के साथ समूचे राष्ट्र की एकता और एकात्मता का मंत्र गंगा तट से भारतवर्ष के कोने-कोने में जाता रहा आया। यह परंपरा भारतीय जन-जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में लोक की जीवनी-सञ्जीवनी शक्ति बन गई।

यदि वर्तमान में देखें तो माघ मास के आने के कई माह पूर्व से ही देश भर में कुंभ, कल्पवास की तैयारियां शुरु हो जाती हैं। राष्ट्र के पूर्व से लेकर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण सभी दिशाओं में निवासरत समूचा समाज माघ मास में कुंभ स्नान-गंगा स्नान के लिए प्रयागराज आता है। हर-हर गंगे, हर-हर महादेव, जय सियाराम, राधे-कृष्ण, राधेश्याम रटता रहता है। गङ्गा स्नान करता है। सूर्य को अर्घ्य देता है। पूजन-अर्चन करता है। अपने को तपाता है। संस्कारित करता है‌। गङ्गा की पुण्यता से मन-वचन और कर्म की निर्मलता का अनुभव करता है। परमात्मा से एकात्म स्थापित करने के लिए उद्यत होता है। अपनी संस्कृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अपने मूल-वैशिष्ट्य के प्रति गौरवान्वित अनुभूत करता है।जीवन के महत् उद्देश्य के साथ साक्षात्कार करता है। पूर्वजों की महान विरासत के साथ एकात्म होता हुआ लोकमङ्गल की संस्थापना का संकल्प लेता है।

भारत इसीलिए भारत है क्योंकि यह धर्म रुपी आत्मा और संस्कृतिनिष्ठ, प्रकृतिनिष्ठ काया का अनुपमेय सम्मुचय है। ‘यत् पिंडे-तत् ब्रम्हाण्डे’ के साथ ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ की धर्मोदात्त चेतना से संपृक्त है। भारत के इसी वैशिष्ट्यपूर्ण सांस्कृतिक चेतना से समृद्ध और धर्म से अलंकृत कुंभ महापर्व में शुभ्रता और पुण्यता की आभा के साथ भारत के लोक के विराट दर्शन होते हैं। प्रयागराज में महाकुंभ के अवसर पर हम अपने ‘राष्ट्र’ का साक्षात् दर्शन पाते हैं। यहां हर पंथ और उपासना को मानने वाले लोग मिलेंगे। यहां राष्ट्र के हर प्रांत से आने वाले वे लोग मिलेंगे जिनकी बोली और भाषाएं परस्पर भिन्न हैं। वे लोग मिलेंगे जिनके पहनावे, रहन-सहन, खान-पान सब अलग-अलग हैं। वे लोग मिलेंगे जिनकी सामुदायिक और जातीय पहचान अलग-अलग रूप में जानी जाती है। यहां एक ओर वे लोग भी मिलेंगे जिनके पास अथाह संपत्ति है तो एक ओर वे लोग भी दिखाई देंगे जिनका जीवन यापन भी चुनौतीपूर्ण होता है। ज्ञानी-ध्यानी, शहरी- ग्रामीण समेत जितने भी प्रकार की भिन्नताएं होती हैं – वो गङ्गा तट में ‘अभिन्न’ स्वरुप में परिवर्तित हो जाती हैं। फिर महाकुंभ में सारी विविधताएं—एकता के सर्वोच्च मानक के रूप में दिखाई देती हैं।

एकात्मता का प्रतीक

कुंभ में सबकी अलग-अलग पहचानें तिरोहित हो जाती हैं और सबके सामने एक पहचान अपनी संपूर्ण आभा के साथ आलोकित होती है। वह एक पहचान होती है भारतीय होने की—सनातनी मूल्यों को जीने वाले हिन्दू होने की। यह पहचान एक ऐसी अमिट पहचान होती है।जो तमाम विद्रूपताओं, भेदभावों और पृथकता को समाप्त कर देती है और एकत्व की उद्घोषणा करती है।

भारत मूल रूप से जो है-उसके ‘तत्व’ को ‘सत्व’ को और ‘सत्य’ को प्रकट करती है। फिर कुंभ महापर्व में प्रकट होता है भारत का विराट दर्शन जो भारत के सनातन काल से चले आ रहे सामाजिक और सांस्कृतिक एकत्व को प्रतिबिंबित करता है।कुंभ पर्व केवल आध्यात्मिक होने के भाव में होने का बोध नहीं प्रदान करता है। अपितु कुंभ महापर्व धार्मिकता के साथ सबको एकता के इस मंत्र से दीक्षित करता है —

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।

अर्थात् — हम सब एक साथ चलें। एक साथ बोलें। हमारे मन एक हों। प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा । इसी कारण वे वंदनीय हैं।

भारतीय समाज की सामाजिकता के संस्कारों का सर्वश्रेष्ठ आदर्श यदि देखना है तो महाकुंभ में इसके दृश्य सहज ही दिखाई देंगे। यहां आने वाला हर व्यक्ति केवल धर्म-अध्यात्म, ज्ञान-भक्ति, तपस्या और कर्मनिष्ठा के एक ध्येय को जीने वाला होता है । सबके अंदर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान उदात्त भावना संचारित होती है। यह अपने को विस्तारित करती हुई ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः’ के स्वरूप में दृष्टिगोचर होती है। कुंभ में आने वाला जन-जन लोककल्याण की भावना से ओत-प्रोत रहता है। यहां लोक बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी की ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ भावना के अनुसार आचरण का संकल्प लेता है। साथ ही कुंभ की पावनता में ‘तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु’ को आत्मसात करते हुए प्राणिमात्र के कल्याण के लिए जीवन को समर्पित करने के पथ पर अग्रसर होता है।

कुंभ माँ गङ्गा की पावनता के साथ ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ के मन्त्र को आत्मसात करते हुए समदर्शी होने-समरस होने के तत्वबोध को जागृत करता है। कुंभ महापर्व भारतीय संस्कृति का एक ऐसा सेतु है जो अपने महाविराट स्वरूप में सबको समावेशित करता है। सबको ‘तप’ के तत्वबोध और सत्य के प्रताप से दीक्षित करता है। पवित्र करता है। सामाजिक और सांस्कृतिक एकता के सूत्रों को दृढ़ बनाता है। लोक को उत्सवधर्मिता के बहुरङ्गों और ह्रदय से ह्रदय के बंध को जोड़ता है। ‘स्व’ के मूल्यों को आत्मसात करने और तदानुसार आचरण के लिए प्रेरित करता है। यह कुंभ महापर्व ही है जो-

‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ के बोध को जागृत करता है। सत्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित और पथ प्रदर्शित करता है। आवश्यकता है कि राष्ट्र अपनी इस गौरवपूर्ण विरासत के साथ गतिमान हो और राष्ट्र निर्माण के पथ पर अग्रसर रहे। कुंभ महापर्व में सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक एकरुपता का जो दर्शन मिलता है उसे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में आचार और व्यवहार में उतारें। सर्जन का ध्येय वाक्य सूत्रवाक्य लेकर जाएं और राष्ट्रीयता के मूल्यों से अनुप्राणित होकर माँ गङ्गा सा अविरल सनातन प्रवाहित होते रहें..।

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