शासन से समर तक भारत की नारी शक्तियां

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भारतीय समाज में नारियों के योगदान को सर्वत्र देखा जा सकता है। चाहे पारिवारिक, सामाजिक संतुलन की बात हो या समर्पण की, न्याय की बात हो या त्याग की , दृष्टि डालने पर अनगिनत उदाहरण हमें मिल जाते हैं। भारत में सदैव नारी आदर व श्रद्धा की देवी मानी गई। आजाद भारत के स्वर्णिम इतिहास में तमाम ऐसे पन्ने हैं , जिन पर पुरुष वीरों के साथ-साथ नारी शक्तियों का आधिपत्य है। माना ये गृह संचालन की धूरी हैं किन्तु इतिहास गवाह है, जब भी परिवार, समाज, राज्य एवं राष्ट्र पर संकट आया इन्होंने न सिर्फ़ राज्य संभाल कर कुशल संचालन किया अपितु रणक्षेत्र में भी अपना लोहा मनवाया। किसी ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ाये तो किसी ने क्रूर शासकों को धूल चटायी, किसी ने पति का साम्राज्य संभाला तो किसी ने भाई के साथ मिलकर विरोधियों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया। अपने और अपनों की रक्षा हेतु सबकुछ दाँव पर लगा दिया लेकिन गुलामी और अंग्रेजी शासन किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया। मातृभूमि की रक्षा के लिए, सतीत्व की रक्षा के लिए किसी ने पुरुष वेश धारण किया तो किसी ने मातृत्व धर्म निभाते हुए पुत्र को पीठ पर बाँधकर अंग्रेजों का सामना किया। अदम्य साहस के साथ कर्म निरत रहते हुए आत्मोत्सर्ग करना कहीं अधिक श्रेयस्कर समझा इन नारियों ने।

आइये जानते हैं, इतिहास के साथ-साथ लोक चेतना में जीवंत ऐसी ही सात नारी शक्ति के बारे में जिन्होंने शासन और समर दोनों में अपनी बेजोड़ एवं सशक्त उपस्थिति से शक्ति शब्द को अर्थवान बना दिया;

रानी  दुर्गावती:

वीरांगना महारानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 में हुआ था। उनका राज्य गोंडवाना में था। दुर्गा अष्टमी पर जन्म होने के कारण ही उनका नाम दुर्गावती रखा गया था। नाम के अनुरूप ही वह तेज, साहस ,शौर्य और सुंदरता से सम्पन्न थीं। दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से उनका विवाह हुआ था, दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपत शाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती का पुत्र नारायण 3 वर्ष का ही था अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। सूबेदार बाजबहादुर ने रानी दुर्गावती पर बुरी नजर डाली थी लेकिन उसको मुंह की खानी पड़ी। दुर्गावती ने युद्ध में उसकी पूरी सेना का सफाया कर दिया, फिर वह कभी पलट कर नहीं आया। महारानी दुर्गावती ने मुस्लिम राज्यों को बार-बार युद्ध में परास्त किया। मुस्लिम राज्य इतने भयभीत हुए कि उन्होंने गोंडवाने की ओर झांकना भी बंद कर दिया। दुर्गावती बड़ी वीर थीं उन्हें यदि पता चलता कि अमुक स्थान पर शेर दिखाई दिया, तो वह तुरंत शिकार करने चल देती थीं। जब तक वह उसे मार न लेतीं पानी भी नहीं पीती थीं।

महारानी दुर्गावती ने 16 वर्ष तक राज्य संभाला। इस दौरान अनेक मंदिर ,मठ, बावड़ी तथा धर्मशालाएं उनके द्वारा बनवाई गई, वह साक्षात दुर्गा थीं। इस वीरतापूर्ण चरित्र वाली रानी ने अंत समय निकट जानकर अपनी कटार स्वयं अपने सीने में उतार कर आत्मबलिदान कर दिया । रानी दुर्गावती ने अकबर के जुल्म के आगे झुकने से इनकार कर स्वतंत्रता और अस्मिता के लिए युद्ध चुना और अनेक बार शत्रुओं को पराजित किया इतिहास उन्हें कभी भुला नहीं पाएगा।

अहिल्याबाई होल्कर:

31 मई 1725 को अहमदनगर के चौंडी ग्राम में जन्मी अहिल्याबाई भारत की वह बेटी हैं जो अपने समय से बहुत आगे थीं। 300 वर्ष पहले ही भारत की कई कुरीतियों का उन्मूलन उन्होंने किया। चाहे बात बालिका शिक्षा की हो या स्त्री अधिकारों की, संकट के समय घोड़े पर चढ़कर युद्ध में जाने की बात हो या समाज को संवारने और समृद्ध करने की अहिल्याबाई एक आधुनिक महिला शासक के रूप में हमारे समक्ष आती हैं।
1767 में पुत्र मालेराव की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई ने सत्ता अपने हाथ में ली। दु:ख में डूबी मालवा पर इस समय कुछ लोगों की बुरी नजर थी लेकिन अहिल्याबाई बेखबर नहीं थीं। उन्हें पूरी प्रजा दिख रही थी और दिख रही थी अपनी जिम्मेदारी, जो पहले से कहीं अधिक बढ़ चुकी थी। संकट का आभास होते ही उन्होंने उससे निपटने की तैयारी शुरू कर दी थी। राशन और अस्त्र-शस्त्र जुटाए जाने लगे, महिलाओं की एक टुकड़ी भी प्रशिक्षित की गई और वह स्वयं तैयार थीं उस टुकड़ी की अगुवाई के लिए। जैसे ही उन्हें पता चला की शिप्रा नदी के उस पार राघोबा आ चुके हैं आक्रमण की मंशा से, तो उन्होंने राघोबा को पत्र लिखा और पत्र में स्पष्ट लिखा कि आपकी सेना के शिप्रा नदी के इस पर आते ही हमारी तलवार चलेगी, आपकी इच्छा पूरी नहीं होगी। हम हारे तो कोई जग हँसाई नहीं होगी, लेकिन यदि आप हारे तो सोचिए महिलाओं से हार पर क्या आप मुंह दिखा पाएंगे। पत्र पढ़ते ही राघोबा के होश उड़ गए, उनके मुख से निकला यह अबला के स्वर हैं या शेरनी के। और इस तरह उनका मन बदल गया। बिना लड़े ही अहिल्याबाई ने युद्ध जीत लिया। बिना लड़े अहिल्याबाई ने कई युद्ध जीते, इनके रहते कोई मालवा पर आक्रमण नहीं कर सका। जबकि यह वह समय था, जब पूरे भारतवर्ष में सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा था। ऐसा प्रभावी व्यक्तित्व था अहिल्याबाई होल्कर का।
अहिल्या से अहिल्याबाई होल्कर और फिर उत्तरोत्तर लोकमाता, पुण्य श्लोक और देवी कहलायीं अहिल्याबाई होल्कर। सिर्फ मराठों के लिए ही नहीं अपितु पूरे भारतीय इतिहास के लिए यह गर्व की बात है।

रानी चेन्नम्मा:

23 अक्टूबर 1778 में रानी चेन्नम्मा का जन्म बेलगाम जिले के ककती में हुआ था, जो कि कर्नाटक के बेलगावी जिले का एक छोटा सा गांव था। उनका विवाह कित्तूर के   राजा मल्लसर्ज से हुआ था। उनका एक पुत्र था। रानी चेन्नम्मा 15 वर्ष की उम्र में कित्तूर की रानी बन गई थीं। सन् 1857 में हुए स्वतंत्रता संग्राम की पहली कड़ी में इस रानी ने अत्यंत बहादुरी के साथ अंग्रेजों से युद्ध किया। रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध का नेतृत्व किया था। इसमें पहले विद्रोह में उन्हें विजय प्राप्त हुई, किंतु दूसरे में युद्धबंदी बना ली गईं। अंग्रेजों का विरोध करने वाली पहली शासक के इस बलिदान ने तमाम रजवाड़ों को संगठित होने के लिए प्रेरित किया।

पहले पति फिर पुत्र के निधन के बाद अंग्रेजों ने ‘राज्य हड़प नीति’ के तहत 1824 में कित्तूर राज्य को ब्रिटिश शासन में मिलाने की घोषणा कर दी, परंतु यह रानी को कतई मंजूर नहीं था, उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लेना उचित समझा और सशस्त्र संघर्ष किया। अपने अपूर्व शौर्य प्रदर्शन के बावजूद वह अंग्रेजी सेना का मुकाबला न कर सकीं। अंग्रेजों ने उन्हें कैद कर लिया। 21 फरवरी 1829 को अंग्रेजों की कैद में रहते हुए और संघर्ष करते हुए रानी चेन्नम्मा वीरगति को प्राप्त हुईं। 1977 में भारत सरकार ने रानी चेन्नम्मा द्वारा देश के लिए किए गए योगदान को याद करते हुए डाक टिकट भी जारी किया। वह कर्नाटक की वीर महिला थीं, एक महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी बहादुर योद्धा थीं, जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया। भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले शासको में रानी चेन्नम्मा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है।

रानी लक्ष्मीबाई:

वह नारी थीं पर युद्ध नीति में प्रवीण थीं, सीने पर गोलियां झेल सकती थीं लेकिन गुलामी नहीं, युद्ध क्षेत्र में सिंहनी की तरह गरजती थीं कोमल और सुंदर होते हुए भी। उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए, अपने रण कौशल से उन्हें आश्चर्य में डाल दिया। जी हां हम बात कर रहे हैं पतिव्रता नारी और ममतामयी मां रानी लक्ष्मीबाई की। लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, सब उनको प्यार से मनु कह कर पुकारते थे । झांसी के राजा गंगाधरराव से विवाह के बाद मनु को लक्ष्मीबाई नाम दिया गया । पुत्र और पति की मृत्यु के बाद रानी लक्ष्मीबाई एकदम अकेली रह गईं। उस समय उनकी आयु 18 वर्ष थी पर वह हिम्मत नहीं हारीं अंग्रेजों से लोहा लेती रहीं। झांसी अंग्रेजों को सौंपना उन्हें गवारा नहीं था। लक्ष्मीबाई उन महिलाओं में थीं जो परिस्थिति के अनुकूल कार्य करने में कुशल होती हैं। अंग्रेजों के आक्रमण के समय वह तनिक भी नहीं घबराईं, उन्होंने पुरुष वेश धारण किया अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांध दोनों हाथों में तलवार लिये और घोड़े पर सवार हो गईं। घोड़े की लगाम अपने मुख में रखी और युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुईं। एक स्त्री के लिए यह सचमुच गौरव की बात है। इस वीरांगना का नाम हमारे देश के इतिहास से कभी मिट नहीं सकता, ग्वालियर में रानी की समाधि उस स्थान पर है जहां उन्होंने वीरगति पाई।

अवंतीबाई:

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले अनेक ऐसे नाम हैं, जिन्हें इतिहास में समुचित स्थान नहीं मिला। इनमें एक नाम रामगढ़ की रानी अवंतीबाई का है। अवंतीबाई सन् 1857 ई. की क्रांति के प्रणेताओं में अग्रणी थीं।
सन् 1850 ई. में मोहनसिंह लोधी के वंशज विक्रमाजीत रामगढ़ की गद्दी पर बैठे। राजा विक्रमाजीत का विवाह सिवनी जिले के मनेकहड़ी के जागीरदार राव जुझारसिंह की पुत्री अवंतीबाई के साथ हुआ था। विक्रमाजीत बहुत ही योग्य और कुशल शासक थे। लेकिन धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण वह राजकाज में कम समय देते थे। उनके दो पुत्र शेरसिंह और अमनसिंह अभी छोटे ही थे कि विक्रमाजीत विक्षिप्त हो गए और राज्य का सारा भार रानी अवंतीबाई के कंधों पर आ गया। राजा विक्रमाजीत की मृत्यु के बाद भी रानी ने साहस के साथ अंग्रेजों के खिलाफ आसपास के ठाकुर जागीरदारों और राजाओं को एकत्र कर विरोध का फैसला किया। रानी की वीरता और सैन्य संचालन से अंग्रेज भी भयभीत थे। सन् 1858 ई. को देवहरगढ़ में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेजों को कई बार पीछे हटना पड़ा, लेकिन उन्होंने शीघ्र ही अवंतीबाई को चारों तरफ से घेर लिया। अवंतीबाई ने दुश्मनों के हाथों मरने से अच्छा आत्मबलिदान समझा। और स्वयं अपनी ही तलवार से शहीद हो गयीं।
अवंतीबाई ने मुट्ठी भर देशभक्त सैनिकों के साथ जिस अलौकिक वीरता और असाधारण युद्ध कौशल के साथ प्राण उत्सर्ग किया, वह विरले उदाहरणों में से एक है।

भीमाबाई:

सन् 1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में होल्कर वंश की इस राजकन्या का त्याग और बलिदान अविस्मरणीय है। यह किसी भी सूरत में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कम न थीं। इन दोनों लोगों के जीवन में अनेक समानताएँ रहीं। सन् 1857 में दोनों की आयु लगभग 22 वर्ष थी और दोनों के ही पतियों का स्वर्गवास हो चुका था। दोनों मराठा थीं और जन्मजात वीर बालाएं। जहां झांसी की रानी ने झांसी को बचाने हेतु युद्ध किया, वहीं होल्कर वंश की इस राज्यकन्या ने अपने भाई मल्हारराव के साथ मिलकर इंदौर की रक्षा हेतु भीषण संग्राम किया। इतना ही नहीं अंतिम इच्छा के रूप में अंग्रेजों से अपनी बात भी मनवा ली। यद्यपि वह स्वभाव से क्रोधी नहीं थीं, परंतु रणक्षेत्र में साक्षात चण्डी नजर आती थीं।
भीमाबाई पति की मृत्यु के बाद इंदौर जाकर पिता व भाई के साथ रहने लगीं। महाराजा जसवंतराव होल्कर की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने उचित अवसर जानकर इंदौर रियासत के कार्यकलापों में हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया। परंतु अल्पवयस्क मल्हारराव होल्कर गद्दी पर बैठने के बाद भी सभी कार्य अपनी बहन भीमाबाई की सलाह से ही करते थे। वास्तव में उस समय रियासत का वास्तविक संचालन भीमाबाई ही कर रही थीं। उन्होंने स्थिति को समझा और अपने भाई से कहा, अब अंग्रेजों को सबक सिखाना ही पड़ेगा। इसका एकमात्र उपाय है अंग्रेजों से खुला युद्ध। ऐसा सबक सिखाएंगे कि वे फिर कभी किसी राज्य पर आक्रमण करने का साहस न कर सकें।
यह सत्य है कि इतिहास में भीमाबाई को वह स्थान प्राप्त नहीं, जो लक्ष्मीबाई को है । परंतु जहां तक व्यावहारिकता का प्रश्न है, साहस, युद्ध कौशल और राज्य संचालन सभी क्षेत्रों में वह लक्ष्मीबाई से किसी भी सूरत में कम नहीं थीं।

रजिया सुल्तान: 

रजिया नारी होते हुए भी अपनी शक्ति, साहस और बुद्धि कौशल से भारत के सिंहासन पर आरूढ़ हो सकीं। वह भारत की प्रथम महिला साम्राज्ञी मानी जाती हैं। इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। यह भारतीय समाज के लिए परम गौरव की बात है ।
इल्तुतमिश को मृत्यु से पूर्व अपनी सुयोग्य और गुणवती पुत्री रजिया को सिंहासन की उत्तराधिकारी घोषित करना पड़ा था क्योंकि प्रथम पुत्र की मृत्यु हो चुकी थी और दूसरे सभी आलसी तथा नालायक थे। रजिया एक ओर स्त्रियों के लिए गौरव तो दूसरी ओर पुरुषों के लिए ईर्ष्या का कारण बनी थी। औरत गद्दी पर बैठकर हुक्म चलायेगी और मर्द उसका पालन करेंगे यह पुरुष वर्ग को बर्दाश्त नहीं था । रजिया एक असाधारण प्रतिभा संपन्न महिला थीं, रजिया ने पुरुष मानसिकता को ध्यान में रखकर स्त्री वेश छोड़ दिया और पुरुष वेश धारण किया, इसी वेश में वह दरबार में जाने लगीं पर उपद्रवियों का मन उससे जरा भी शांत न हुआ। एक साधारण नारी की प्रभुता उनके लिए असह्य हो गई, फलस्वरूप वह पीठ पीछे रजिया के विरुद्ध षडयंत्र रचने लगे । दिल्ली के सम्राट के विरुद्ध हुए युद्ध में रजिया को अपनी जान गंवानी पड़ी।
शिक्षा तथा शिक्षितों के प्रति रजिया के मन में अगाध श्रद्धा थी उनकी युद्ध प्रतिभा और शासन क्षमता अतुलनीय थी परंतु राज्य के उच्च पदस्थ कर्मचारियों के षडयंत्रों के चलते देशवासी रजिया की शासन दक्षता से लाभान्वित न हो सके। भारत के इतिहास में यह खेद जनक घटना है।

उपर्युक्त सभी के साहस,शौर्य, संघर्ष, वीरता और बलिदान का गान इतिहास गर्व से करता है और सदैव करता रहेगा।

   डॉ. चारुशीला सिंह


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Dr. Charushila Singh

Dr. Charushila Singh is a distinguished teacher and poetess from Gorakhpur, renowned for her contributions to Hindi and Sanskrit education. She gained national recognition during the COVID-19 pandemic through her online classes, which were broadcast by Doordarshan. UP Chief Minister Yogi Adityanath honored her for remarkable contributions in education. Apart from being an educator, Dr. Singh is also an accomplished poetess, whose literary works reflect her deep understanding of Indian culture and language.

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