भारत में महिलाएं कुल जनसंख्या का 48% हैं, लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, वे देश की जीडीपी में केवल 18% का योगदान देती हैं.
अर्थव्यवस्था का एक मूल सिद्धांत है कि इसकी प्रगति में सभी की समान भागीदारी हो. यदि ऐसा नहीं होता है, तो आर्थिक असमानता उत्पन्न होती है और अमीर-गरीब के बीच बहस खड़ी होती है. इसी असमानता के बीच एक और महत्वपूर्ण चर्चा महिलाओं की अर्थव्यवस्था में भागीदारी को लेकर है. दुनिया भर में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी का प्रश्न एक ज्वलंत विषय बना हुआ है. उदाहरण के लिए, भारत में महिलाएं कुल जनसंख्या का 48% हैं, लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, वे देश की जीडीपी में केवल 18% का योगदान देती हैं. यही कारण है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में असमानता की बहस केवल अमीर-गरीब तक सीमित नहीं, बल्कि पुरुष और महिला की आर्थिक शक्ति के अंतर पर भी केंद्रित हो गई है. आज यदि किसी भी देश को प्रगति करनी है, तो उसे अपनी अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी ही होगी. विश्व की सभी विकसित अर्थव्यवस्थाओं का यदि विश्लेषण किया जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वहां पुरुषों की तुलना में महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी लगभग समान या अत्यधिक निकट है. इसके विपरीत, भारत में यह स्थिति अलग है. भारत में महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी दर 37% है. यह पिछली दशक की तुलना में वृद्धि तो दर्शाता है, लेकिन इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता.
हर साल 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है, जो महिलाओं के अधिकार, समानता और सशक्तिकरण को प्रोत्साहित करने का एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान करता है. इसी क्रम में, वर्ष 2025 की थीम है – “सभी महिलाओं और लड़कियों के लिए: अधिकार, समानता और सशक्तिकरण.” यदि इस विषय पर विचार करें, तो इन तीनों पहलुओं को सशक्त बनाने में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी एक प्रभावी और आवश्यक साधन साबित हो सकती है. आर्थिक भागीदारी का अर्थ है – देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी. जब महिलाओं के हाथ में आमदनी होगी, तो वे स्वतंत्र निर्णय ले सकेंगी. स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता उन्हें बराबरी का अधिकार दिलाएगी. जब महिलाएं काम करेंगी, उत्पादन और सेवाओं में योगदान देंगी, निर्णय लेंगी, तो यह न केवल उनके सशक्तिकरण का माध्यम बनेगा, बल्कि देश की आर्थिक प्रगति को भी गति देगा.
महिलाओं की अर्थव्यवस्था में भागीदारी सतत आर्थिक विकास, लैंगिक समानता और गरीबी उन्मूलन के लिए न केवल आवश्यक बल्कि अनिवार्य है. मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट (एमजीआई) की रिपोर्ट के अनुसार, यदि भारत अपने कार्यबल में 6.8 करोड़ और महिलाओं को शामिल करे, तो 2025 तक देश की जीडीपी में 0.7 ट्रिलियन डॉलर की वृद्धि संभव है. वहीं, विश्व बैंक की रिपोर्ट दर्शाती है कि यदि भारत अपने श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी को 50% तक बढ़ा सके, तो देश की जीडीपी वृद्धि दर 1.5 प्रतिशत अंक तक बढ़ सकती है.
महिलाओं की आर्थिक भागीदारी बढ़ाने के लिए आवश्यक उपाय
भारत में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी बढ़ाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और वित्तीय समावेशन पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ उद्यमिता को भी प्रोत्साहित करना होगा. इसके अलावा, उन सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाओं को दूर करना आवश्यक है जो महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी को सीमित करती हैं. हालांकि इस दिशा में भारत ने काफी प्रगति की है, लेकिन अब भी इस धारणा के खिलाफ कार्य करने की जरूरत है कि महिलाएं कुछ विशेष कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं हैं. उदाहरण के लिए, आतिथ्य और पर्यटन (हॉस्पिटैलिटी एंड टूरिज्म) क्षेत्र में सॉफ्ट स्किल्स से जुड़े कार्य, जैसे रिसेप्शन और गेस्ट वेलकम, महिलाओं के लिए स्वाभाविक रूप से उपयुक्त माने जाते हैं, जबकि निर्णय लेने और नेतृत्वकारी भूमिकाओं में पुरुषों की प्रधानता बनी हुई है. ऐसे तमाम पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी धारणाएं हैं जिन्हें तोड़ना आवश्यक है. इस दिशा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
1. शिक्षा और कौशल विकास: महिलाओं की आर्थिक सशक्तिकरण की आधारशिला शिक्षा और कौशल विकास है. इसके लिए यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि सभी स्तरों—प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक—लड़कियों और महिलाओं को समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले. इसके अलावा, शिक्षा को उद्योगों की जरूरतों के अनुरूप बनाया जाए, ताकि महिलाओं को नई नौकरियों और आधुनिक तकनीकों में प्रशिक्षित किया जा सके. सिलाई मशीन और घरेलू कार्यों तक सीमित कौशल प्रशिक्षण के बजाय, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डेटा एनालिटिक्स, क्लाउड कंप्यूटिंग जैसी आधुनिक तकनीकों में महिलाओं को दक्ष बनाया जाए, जिससे वे भविष्य की नौकरियों के लिए तैयार हो सकें.
2. आर्थिक सशक्तिकरण और वित्तीय समावेशन: महिलाओं की वित्तीय स्वतंत्रता उनके जीवन में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है. भारत के पास आज दुनिया का सबसे बड़ा डिजिटल भुगतान नेटवर्क है, जिसका उपयोग महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में किया जा सकता है. महिलाओं के लिए माइक्रोफाइनेंस, ऋण और अन्य वित्तीय सेवाओं की पहुंच बढ़ाई जाए, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें. स्वयं सहायता समूहों (SHG) के माध्यम से उन्हें उत्पादक गतिविधियों से जोड़ा जाए और उनमें उद्यमिता को विकसित किया जाए. इसके लिए एक व्यापक योजना बनाई जा सकती है, जिसमें देश के प्रत्येक गांवों को 5 से 10 गांवों के समूहों में संगठित कर एक मजबूत SHG तंत्र विकसित किया जाए. इस मॉडल के तहत घरेलू जरूरतों के हिसाब से उत्पादन और सेवाओं का वितरण SHG के माध्यम से सुनिश्चित किया जाए, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नया स्वरूप मिल सके. इसके अलावा, समान कार्य के लिए समान वेतन की नीति को सख्ती से लागू किया जाए, ताकि महिलाओं को उनके श्रम का उचित पारिश्रमिक मिल सके.
3. महिला रोजगार बढ़ाने पर प्रोत्साहन: यह तर्क दिया जा सकता है कि महिलाओं को नौकरी देने पर प्रोत्साहन देना पक्षपातपूर्ण हो सकता है, लेकिन यह एक आवश्यक कदम है. सरकार एक न्यूनतम कटऑफ तय कर सकती है, जिसके तहत कंपनियों को अपने कुल रोजगार का एक निश्चित प्रतिशत महिलाओं को देना अनिवार्य बनाया जाए. इसके अतिरिक्त, यदि कोई संगठन इस न्यूनतम सीमा से अधिक महिलाओं को रोजगार देता है, तो उसे सरकारी प्रोत्साहन दिए जाएं, जैसे—सस्ती बिजली, उत्पादन सहायता, कर में छूट आदि. इससे दो प्रमुख लाभ होंगे—पहला, भारत में एक कुशल महिला कार्यबल तैयार होगा, जो भविष्य के लिए देश की आर्थिक वृद्धि को गति देगा; और दूसरा, महिला श्रम बल की भागीदारी बढ़ेगी, जिससे समाज में लैंगिक समानता को बढ़ावा मिलेगा.
महिलाओं की उच्च पदों पर भागीदारी बढ़ाने की आवश्यकता
महिलाओं की उच्च पदों पर भागीदारी बढ़ाना आवश्यक है, क्योंकि विश्व आर्थिक मंच की नवीनतम ‘ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट’ दर्शाती है कि जिन समाजों में राजनीतिक नेतृत्व में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है, वे अधिक समृद्ध और समानतापूर्ण होते हैं. जिन देशों में महिलाओं का उच्च पदों पर अधिक प्रतिनिधित्व होता है, वे पुरुषों और महिलाओं के बीच कानूनी असमानता को समाप्त करने में सफल रहते हैं. कानूनी भेदभाव को खत्म करने से महिलाओं के लिए नए रोजगार और आर्थिक अवसर खुलते हैं, जिससे उनकी कार्यबल में भागीदारी बढ़ती है. जब महिलाओं को समान अवसर मिलते हैं, तो इसका सकारात्मक प्रभाव न केवल उनके व्यक्तिगत जीवन पर पड़ता है, बल्कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा मिलता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)