टैरिफ से अमेरिका को कितना फायदा? कौन सी गलती फिर दोहरा रहा है अमेरिका?

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1947 में GATT (टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौता) की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य वैश्विक व्यापार को अधिक उदार और सहज बनाना था. इतिहास हमें यह स्मरण कराता है कि स्मूट-हावले टैरिफ का प्रभाव कितना विनाशकारी रहा था. इसका सबसे गंभीर परिणाम यह हुआ कि 1930 की आर्थिक मंदी लंबे समय तक बनी रही.

 

साल 1929—अमेरिका में अनिश्चितता का माहौल था. न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज धराशायी हो चुका था, फैक्ट्रियाँ बंद हो रही थीं, और बेरोजगारी चरम पर थी. यह महामंदी (Great Depression 1930) की शुरुआत थी. ऐसे कठिन समय में अमेरिकी नेता आर्थिक संकट से उबरने के उपाय खोज रहे थे. इसी क्रम में, तत्कालीन सीनेटर रीड स्मूट और प्रतिनिधि विलिस हावले ने कांग्रेस में यह प्रस्ताव रखा कि विदेशी वस्तुओं पर ऊँचे टैरिफ लगाने से अमेरिकी उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा और देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी.

1930 में, स्मूट-हावले टैरिफ कानून पारित हुआ, जिसने लगभग 20,000 से अधिक विदेशी उत्पादों पर भारी शुल्क बढ़ा दिया. लेकिन यह नीति अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए लाभकारी सिद्ध होने के बजाय एक बड़े व्यापार युद्ध की चिंगारी बन गई. अन्य देशों ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए अमेरिकी सामानों पर भारी शुल्क लगा दिया. ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा और अन्य देशों ने भी अपने आयात शुल्क बढ़ा दिए. परिणामस्वरूप, अमेरिका का निर्यात तेजी से घटने लगा, फैक्ट्रियाँ और अधिक संख्या में बंद होने लगीं, और वैश्विक व्यापार प्रणाली गंभीर रूप से प्रभावित हुई. इसका असर केवल अमेरिका तक सीमित नहीं रहा—यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएँ कमजोर पड़ गईं, और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नेटवर्क लगभग ध्वस्त हो गया.

सालों बाद, द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात, अमेरिका और अन्य देशों ने यह भली-भाँति समझ लिया कि अत्यधिक संरक्षणवाद आर्थिक प्रगति में बाधक बनता है. इसी अनुभूति के आधार पर, 1947 में GATT (टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौता) की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य वैश्विक व्यापार को अधिक उदार और सहज बनाना था. इस मुक्त व्यापार नीति ने अमेरिका को वैश्विक आर्थिक नेतृत्व प्रदान किया. आज भी, जब कोई देश संरक्षणवाद की राह पकड़ता है, इतिहास हमें यह स्मरण कराता है कि स्मूट-हावले टैरिफ का प्रभाव कितना विनाशकारी रहा था. इसका सबसे गंभीर परिणाम यह हुआ कि 1930 की आर्थिक मंदी लंबे समय तक बनी रही.

डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ़ नीति: क्या दुनिया व्यापार युद्ध की राह पर?

हाल ही में, डोनाल्ड ट्रंप की शुल्क नीति और उसके तहत रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने की घोषणा ने यह सवाल खड़ा कर दिया है—क्या संरक्षणवाद एक बार फिर वैश्विक व्यापार को बाधित कर रहा है? यह बहस तेज हो गई है कि टैरिफ आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देते हैं या यह एक आत्मघाती कदम साबित होता है?

ट्रंप ने कनाडा, मैक्सिको और चीन के खिलाफ सख्त व्यापार नीतियाँ अपनाई है. हाल ही में, उन्होंने दो महत्वपूर्ण घोषणाओं पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत स्टील और एल्युमिनियम पर मौजूदा शुल्क दर को 10% से बढ़ाकर 25% कर दिया गया. जवाब में, चीन ने लगभग 21.2 बिलियन डॉलर मूल्य के अमेरिकी निर्यात पर 10% से 15% तक प्रतिरोधात्मक शुल्क लगाने की घोषणा की. अमेरिका, जो दुनिया का सबसे बड़ा स्टील आयातक है, अपने शीर्ष तीन आपूर्तिकर्ताओं—कनाडा, ब्राजील और मैक्सिको पर अत्यधिक निर्भर है. 2024 में, कनाडा ने अमेरिका में आयातित एल्युमिनियम का 50% से अधिक हिस्सा आपूर्ति किया. ट्रंप ने इससे पहले भी 2018 में अपने पहले कार्यकाल में स्टील पर 25% और एल्युमिनियम पर 15% शुल्क लगाया था.

ट्रंप टैरिफ का उपयोग क्यों कर रहे हैं?

असल में, ‘टैरिफ’ ट्रंप की आर्थिक नीतियों का एक प्रमुख आधार हैं. अपने चुनाव प्रचार के दौरान, उन्होंने अमेरिका के प्रमुख व्यापार भागीदारों के खिलाफ आयात शुल्क लगाने का वादा किया था. ट्रंप की आर्थिक सोच यह है कि टैरिफ से अमेरिकी विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) उद्योग को बढ़ावा मिलेगा, नौकरियों की सुरक्षा होगी, कर राजस्व बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था मजबूत होगी. अब ट्रंप ने अगले महीने से सभी देशों पर ‘रेसिप्रोकल टैरिफ़’ लगाने का फैसला किया है, यानी जो देश अमेरिकी उत्पादों पर जितना टैरिफ लगाएगा, अमेरिका भी उसके उत्पादों पर उतना ही टैरिफ लगाएगा. इस नीति के कारण भारत समेत कई अन्य देश भी इसकी चपेट में आ सकते हैं.

ट्रंप की टैरिफ नीति ने 2018 में पहले ही एक व्यापक व्यापार युद्ध को जन्म दिया था, जिसका असर अमेरिका समेत पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा था. संरक्षणवाद की यह नीति वैश्विक व्यापार संतुलन को अस्थिर कर सकती है, जिससे निवेश, उत्पादन और रोजगार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.

टैरिफ से अमेरिका को कितना फ़ायदा?

ट्रंप के हालिया टैरिफ निर्णयों ने वैश्विक बाजार में चिंता और अनिश्चितता पैदा कर दी है. इसका प्रभाव न केवल अमेरिका बल्कि यूरोपीय संघ, यूके और ब्राज़ील जैसे देशों पर भी पड़ा है. स्टील और एल्युमिनियम पर 25% आयात शुल्क लगाने से अमेरिका में घरेलू महंगाई बढ़ने की आशंका है, क्योंकि अमेरिकी कंपनियां जो इन धातुओं का उपयोग उत्पाद बनाने में करती हैं, उन्हें ऊंची लागत का सामना करना पड़ेगा, जिससे उनके उत्पादों की कीमतें भी बढ़ सकती हैं.

टैरिफ़ लगाने का उद्देश्य सरकारी राजस्व बढ़ाना है ताकि आयकर में छूट दी जा सके. हालांकि, आर्थिक आंकड़ों के अनुसार, अमेरिकी सरकार की कुल कमाई में टैरिफ़ का योगदान मात्र 1.2% है. जानकारों को संदेह है कि टैरिफ बढ़ाने से इतनी आमदनी नहीं होगी कि आयकर में कटौती की जा सके. हालांकि अब ऐसे निर्णयों के प्रभाव अमेरिकी शेयर बाज़ार पर साफ दिखाई पड़ रहे हैं. इधर बीच S&P 500 में 4% की गिरावट और NASDAQ में 8% की गिरावट हुई है. इससे निवेशकों में असमंजस की स्थिति है और अब तमाम वित्तीय संस्थाओं ने अमेरिका में संभावित मंदी की चेतावनी दी है.

इसके अलावा टैरिफ के प्रति अमेरिका में पीपल सेंटीमेंट भी कमजोर दिखाई पड़ता है. हाल में हुए मारक्वेट लॉ स्कूल पोल के अनुसार, केवल 24% अमेरिकी नागरिकों को लगता है कि टैरिफ उनकी अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक होंगे. अधिकतर लोगों को चिंता है कि टैरिफ महंगाई बढ़ा सकते हैं और वस्तुओं की कीमतें ऊंची कर सकते हैं. पिछले 100 वर्षों के आर्थिक अध्ययन भी यही दर्शाता है कि मुक्त व्यापार से आर्थिक उत्पादन और आय स्तर में वृद्धि होती है, जबकि व्यापार प्रतिबंधों से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. संरक्षणवादी नीतियां रोज़गार में कमी और आर्थिक उत्पादन में गिरावट का कारण बन सकती हैं.


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Vikrant Nirmala

Vikrant Nirmala, an esteemed alumnus of Banaras Hindu University (BHU), is the Founder and President of the Finance and Economics Think Council. Currently pursuing a PhD at the NIT, Rourkela, he is a distinguished thought scholar in the fields of finance and economics. Vikrant is contributing insightful articles to leading newspapers and prominent digital media platforms, showcasing his expertise in these domains.

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