आवश्यक है कि वैश्विक स्तर पर एक एआई आचार संहिता (AI Code of Ethics) का निर्माण किया जाए, जिसमें रचनात्मक क्षेत्रों में एआई के उपयोग की सीमाएँ स्पष्ट हों। इसमें यह तय किया जाना चाहिए कि एआई किन कार्यों में सहयोगी हो सकता है और किन कार्यों में उसे निषिद्ध किया जाए।
हम उस विलक्षण युग की देहरी पर खड़े हैं, जहाँ यथार्थ और कल्पना के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, जिसे हम ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ कहते हैं, ने अब हमारे सोचने, समझने और रचने की शैली को एक नई परिभाषा दे दी है। साहित्य, चित्रकला, संगीत, सिनेमा- हर रचनात्मक क्षेत्र में एआई की गूँज सुनाई देती है। एक ओर जहाँ यह तकनीकी प्रगति अभूतपूर्व सुविधा और रचनात्मकता का माध्यम बन रही है, वहीं दूसरी ओर यह मौलिकता, प्रमाणिकता और नैतिकता के संकट को भी जन्म दे रही है। प्रश्न यह है कि यह गूँज क्या मनुष्यता की अंतर्ध्वनि को दबा तो नहीं रही?
इस युग में जब विचार, संवेदना और कल्पना भी कृत्रिमता की चपेट में हैं, तब सबसे बड़ा संकट मनुष्य की आत्म-पहचान का है। मौलिकता केवल एक रचना की विशेषता नहीं, बल्कि व्यक्ति की चेतना का प्रतिबिम्ब होती है। यदि यह चेतना ही अब बाहरी उपकरणों के सहारे संचालित होने लगे, तो हम अपनी आत्मा से, अपनी जड़ों से कटते चले जाएँगे। विचारणीय यह भी है कि जब हर चीज़ को मशीनें रचने लगेंगी, तब मनुष्य की भूमिका क्या केवल उपभोक्ता की रह जाएगी? क्या हम केवल देखने, सुनने और साझा करने वाले बनकर रह जाएँगे? यह परिदृश्य एक गहरे अस्तित्वगत संकट की ओर संकेत करता है।
अब व्यक्ति स्वयं सोचने, लिखने या चित्रित करने के स्थान पर एआई (AI) के सहारे अपने विचारों, भावनाओं और कल्पनाओं को आकार देने लगा है। चित्रकला हो या साहित्य-सृजन, संगीत हो या चलचित्र निर्माण, हर क्षेत्र में एआई की दखल बढ़ती जा रही है। लेकिन यह प्रगति तब भयावह रूप लेती है जब इसका दुरुपयोग समाज को भ्रमित करने, जनमत को प्रभावित करने और सच को झूठ में परिवर्तित करने के लिए किया जाता है। हाल ही में हैदराबाद विश्वविद्यालय के कांचा गाचीबोवली वन क्षेत्र में बुलडोज़र चलने की आड़ में जो वीडियो और तस्वीरें प्रचारित की गईं, उसमें काफी सारी एआई जनित थीं और उनका उद्देश्य एक खास नैरेटिव गढ़ना था। ऐसी घटनाएँ केवल एक उदाहरण नहीं हैं बल्कि इस गंभीर संकट का संकेत हैं कि सत्य और असत्य अब एक जैसे दिखने लगे हैं।
इस विकट परिस्थिति में यह जानना अत्यंत आवश्यक हो गया है कि कोई तसवीर, वीडियो या रचना वास्तव में मौलिक है या कृत्रिम। दुर्भाग्यवश आज भी आमजन के पास ऐसा कोई व्यापक और सार्वभौमिक साधन नहीं है जिससे वह तत्काल पहचान सके कि किसी चित्र या वीडियो की उत्पत्ति कहां से हुई है? हालांकि तकनीक के क्षेत्र में प्रयास प्रारंभ हो चुके हैं। अमेरिका तथा यूरोपीय संघ में कुछ शोध संस्थान तथा निजी कंपनियाँ इस दिशा में “डिजिटल वॉटरमार्किंग” और “मेटाडेटा टैगिंग” जैसी तकनीकों पर कार्य कर रहे हैं। यह तंत्र हर एआई जनित सामग्री पर एक अदृश्य परंतु अटूट छाप छोड़ता है जिसे कोई आसानी से मिटा नहीं सकता। इस छाप को प्रमाण की भाँति प्रयोग किया जा सकता है कि फलाँ चित्र या वीडियो किसी एआई मॉडल द्वारा तैयार किया गया है।
प्रसिद्ध एआई कंपनियाँ जैसे ओपन एआई, गूगल, और मेटा इस विषय में अपनी जवाबदेही तय करने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। वे अपने एआई मॉडलों में एक ऐसा अंतर्निहित हस्ताक्षर जोड़ने पर विचार कर रही हैं, जो उपयोगकर्ता को बता सके कि सामग्री एआई जनित है। भारत में इस दिशा में अभी जागरूकता की कमी है, परन्तु नीति निर्धारकों तथा तकनीकी विशेषज्ञों को अब इस संकट की गहराई समझनी चाहिए। यदि समय रहते कोई ठोस व्यवस्था नहीं की गई, तो यह तकनीक लोकतंत्र, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक मूल्यों के लिए एक गंभीर खतरा बन सकती है।
इसके लिए सरकार एक ऐसा यूनिवर्सल एप्प विकसित कर सकती है या अंतरराष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से कोई ऐसा डिजिटल ढाँचा तैयार किया जा सकता है, जिसमें किसी भी डिजिटल सामग्री को अपलोड कर उसकी मौलिकता की जाँच की जा सके। आज “डीपफेक” नामक तकनीक इतनी सशक्त हो चुकी है कि वह किसी व्यक्ति की आवाज़, चेहरा और हावभाव की हूबहू नकल कर सकती है। ऐसी परिस्थितियों में सत्य को पहचाना कठिन ही नहीं, असंभव प्रतीत होता है। इसलिए एआई कंपनियों को एक “होलमार्क” अथवा “डिजिटल पहचान चिह्न” देना अनिवार्य किया जाना चाहिए जो कानून द्वारा संरक्षित हो और जिसकी छेड़छाड़ दंडनीय हो।
एक अन्य समाधान यह भी हो सकता है कि विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में डिजिटल साक्षरता के पाठ्यक्रम को अनिवार्य किया जाए, जिससे भावी पीढ़ी तकनीकी सृजन और वास्तविकता के भेद को समझ सके। यह ज्ञान उन्हें केवल एआई के छलावे से बचाएगा ही नहीं, बल्कि उन्हें एक विवेकशील नागरिक भी बनाएगा।
इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि वैश्विक स्तर पर एक एआई आचार संहिता (AI Code of Ethics) का निर्माण किया जाए, जिसमें रचनात्मक क्षेत्रों में एआई के उपयोग की सीमाएँ स्पष्ट हों। इसमें यह तय किया जाना चाहिए कि एआई किन कार्यों में सहयोगी हो सकता है और किन कार्यों में उसे निषिद्ध किया जाए। इसके साथ ही, साहित्य, मीडिया और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य कर रहे संगठनों को आगे आकर जन-जागरूकता अभियान चलाना चाहिए, जिससे लोग डिजिटल युग में मौलिकता और कृत्रिमता के बीच अंतर समझ सकें। यह संघर्ष केवल तकनीकी नहीं, बल्कि मानवीय अस्मिता की रक्षा का संघर्ष है।
इस तरह से यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि एआई का युग हमारी सभ्यता के उस मोड़ पर खड़ा है जहाँ तकनीकी विकास और नैतिक उत्तरदायित्व के बीच संतुलन अत्यंत आवश्यक है। यदि हम इस कृत्रिमता की आंधी में सत्य, संवेदना और मौलिकता को संरक्षित नहीं रख सके, तो आनेवाली पीढ़ियाँ उस सत्य को पहचानने से भी वंचित रह जाएँगी, जिसे उन्होंने कभी रचा ही नहीं होगा। यह समय केवल एआई के दुरुपयोग को रोकने का नहीं, बल्कि अपने आंतरिक मौलिक स्रोतों को पुनः जाग्रत करने का है। केवल तभी हम उस सूक्ष्म अंतर को पहचान सकेंगे जो मशीन की नकल और मनुष्य की सजीव अनुभूति के बीच होता है।