अमेरिकी आर्थिक नीतियों के विपरीत प्रभाव की सम्भावना

Spread the love! Please share!!

हाल ही के वर्षों में अमेरिका में जब मुद्रा स्फीति की दर पिछले लगभग 50 वर्षों के उच्चत्तम स्तर पर थी, तब फेडरल रिजर्व द्वारा फेड दर (ब्याज दरों) को भी 0.25 प्रतिशत से बढ़ाकर 6.50 प्रतिशत तक लाया गया इससे अमेरिका की सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य कर रही कम्पनियों से लगभग 2 लाख इंजीनियरों की छँटनी हुई।

वैश्विक स्तर पर अमेरिकी डॉलर लगातार मजबूत हो रहा है और अंतरराष्ट्रीय बाजार में अन्य देशों की मुद्राओं की कीमत अमेरिकी डॉलर की तुलना में गिर रही है। इससे, विशेष रूप से विभिन्न वस्तुओं का आयात करने वाले देशों में वस्तुओं के आयात के साथ मुद्रा स्फीति का भी आयात हो रहा है। इन देशों में मुद्रा स्फीति बढ़ती जा रही है और इसे नियंत्रित करने के उद्देश्य से एक बार पुनः ब्याज दरों में वृद्धि की सम्भावना भी बढ़ रही है। भारतीय रिजर्व बैंक को अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय रुपए के अवमूल्यन को रोकने के लिए भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में से लगभग 5,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर को बेचना पड़ा है जिससे भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अपने उच्चत्तम स्तर 70,500 करोड़ अमेरिकी डॉलर से घटकर 65,500 करोड़ अमेरिकी डॉलर के भी नीचे आ गया है। अमेरिकी डॉलर के लगातार मजबूत होने के चलते विश्व के लगभग सभी देशों की यही स्थिति बनती हुई दिखाई दे रही है।

दूसरी ओर, अमेरिका में बजटीय घाटा एवं बाजार ऋण की राशि अपने उच्चत्तम स्तर पर पहुंच गई है एवं अमेरिका को इसे नियंत्रित करने के लिए अपनी आय में वृद्धि करना एवं व्यय को घटाना आवश्यक हो गया है। परंतु, 20 जनवरी 2025 को डॉनल्ड ट्रम्प के अमेरिका के राष्ट्रपति बनते ही सम्भव है कि ट्रम्प प्रशासन द्वारा आयकर में भारी कमी की घोषणा की जाय। डॉनल्ड ट्रम्प ने अपने चुनावी भाषण में इसके बारे में इशारा भी किया था। हां, सम्भव है कि आयकर को कम करने के चलते कुल आय में होने वाली कमी की भरपाई अमेरिका द्वारा कच्चे तेल के उत्पादन में वृद्धि कर इसके निर्यात में वृद्धि एवं अमेरिका में विभिन्न वस्तुओं के अमेरिका में होने वाले आयात पर कर में वृद्धि करने के चलते कुछ हद्द तक हो सके। परंतु, कुल मिलाकर यदि आय में होने वाली सम्भावित कमी की भरपाई नहीं हो पाती है तो अमेरिका में बजटीय घाटा एवं बाजार ऋण की राशि में अतुलनीय वृद्धि सम्भव है। जो एक बार पुनः अमेरिका में मुद्रा स्फीति को बढ़ा सकता है और फिर से अमेरिका में ब्याज दरों में कमी के स्थान पर वृद्धि देखने को मिल सकती है।

पूंजीवादी नीतियों का प्रभाव

पूरे विश्व में पूंजीवादी नीतियों के चलते मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में रखने के उद्देश्य से विभिन्न देशों द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि की घोषणा की जाती रही है। किसी भी देश में मुद्रा स्फीति की दर यदि खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि के चलते बढ़ रही है तो इसे ब्याज दरों में वृद्धि कर नियंत्रण में नहीं लाया जा सकता है। हां, खाद्य पदार्थों की बाजार में आपूर्ति बढ़ाकर जरूर मुद्रा स्फीति को तुरंत नियंत्रण में लाया जा सकता है। अतः यह मांग की तुलना में आपूर्ति सम्बंधी मुद्दा अधिक है। उत्पादों की मांग में कमी करने के उद्देश्य से बैंकों द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि की जाती है, जिससे ऋण की लागत बढ़ती है और इसके कारण अंततः विभिन्न उत्पादों की उत्पादन लागत बढ़ती है। उत्पादन लागत के बढ़ने से इन उत्पादों की मांग बाजार में कम होती है जो अंततः इन उत्पादों के उत्पादन में कमी का कारण भी बनती है। उत्पादन में कमी अर्थात बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा कर्मचारियों की छँटनी करने के परिणाम के रूप में भी दिखाई देती है।

हाल ही के वर्षों में अमेरिका में जब मुद्रा स्फीति की दर पिछले लगभग 50 वर्षों के उच्चत्तम स्तर पर अर्थात 10 प्रतिशत के आसपास पहुंच गई थी, तब फेडरल रिजर्व द्वारा फेड दर (ब्याज दरों) को भी 0.25 प्रतिशत से बढ़ाकर 6.50 प्रतिशत तक लाया गया था, और यह दर लम्बे समय तक बनी रही थी। इसका प्रभाव, अमेरिका की सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य कर रही कम्पनियों पर अत्यधिक विपरीत रूप में पड़ता दिखाई दिया था और लगभग 2 लाख इंजीनियरों की छँटनी इन कम्पनियों द्वारा की गई थी। अतः मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में लाने के उद्देश्य से ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करने का निर्णय अमानवीय है एवं इसे उचित निर्णय नहीं कहा जा सकता है। ब्याज दरों में वृद्धि करने का परिणाम वैश्विक स्तर पर कोई बहुत अधिक सफल भी नहीं रहा है। अमेरिका को मुद्रा स्फीति की दर को नियंत्रण में लाने के लिए लगभग 3 वर्ष(?) का समय लग गया है और यह इस बीच ब्याज दरों को लगातार उच्च स्तर पर बनाए रखने के बावजूद सम्भव नहीं हो पाया है।

भारत के आर्थिक विकास दर पर प्रभाव

भारत में भी भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से रेपो दर (ब्याज दर) में पिछले लगभग 22 माह तक कोई परिवर्तन नहीं किया गया था एवं इसे उच्च स्तर पर बनाए रखा गया था जिसका असर अब भारत के आर्थिक विकास दर पर स्पष्ट दिखाई दे रहा है एवं वित्तीय वर्ष 2024-25 की द्वितीय तिमाही में भारत में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर गिरकर 5.2 प्रतिशत रही है, जो वित्तीय वर्ष 2023-24 में 8.2 प्रतिशत की रही थी। आर्थिक विकास दर में वृद्धि दर का कम होना अर्थात देश में रोजगार के कम अवसर निर्मित होना एवं नागरिकों की आय में वृद्धि की दर का भी कम होना भी शामिल रहता है। अतः लंबे समय तक ब्याज दरों को ऊंचे स्तर पर नहीं बनाए रखा जाना चाहिए।

यह सही है कि मुद्रा स्फीति को एक दैत्य की संज्ञा भी दी जाती है और इसका सबसे अधिक विपरीत प्रभाव गरीब वर्ग पर पड़ता है। अतः किसी भी देश के लिए इसे नियंत्रण में रखना अति आवश्यक है। परंतु, मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में रखने हेतु लगातार ब्याज दरों में वृद्धि करते जाना भी अमानवीय कृत्य है। ब्याज दरों में वृद्धि की तुलना में विभिन्न उत्पादों की बाजार में आपूर्ति बढ़ाकर मुद्रा स्फीति को तुरंत नियंत्रण में लाया जा सकता है। विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा उत्पादों की आपूर्ति बढ़ाने हेतु प्रयास किए जाने चाहिए। आपूर्ति बढ़ाने के प्रयासों में इन उत्पादों के उत्पादन में वृद्धि करना भी शामिल होगा, कम्पनियों द्वारा उत्पादन में वृद्धि करने के साथ साथ रोजगार के नए अवसरों का निर्माण भी किया जाएगा। इस प्रकार के निर्णय देश की अर्थव्यवस्था के लिए हितकारी एवं लाभदायक साबित होंगे।

अमेरिका द्वारा आयात कर में वृद्धि संभव

अमेरिका द्वारा आर्थिक क्षेत्र से सम्बंधित की जा रही विभिन्न घोषणाओं जैसे चीन एवं अन्य देशों से आयात की जाने वाली वस्तुओं पर आयात कर में 60 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक की वृद्धि करना, अमेरिका पर लगातार बढ़ रहे ऋण को कम करने हेतु किसी भी प्रकार के प्रयास नहीं करना, अमेरिकी बजटीय घाटे का लगातार बढ़ते जाना, विदेशी व्यापार के क्षेत्र में व्यापार घाटे का लगातार बढ़ते जाना, विभिन्न देशों द्वारा डीडोलराईजेशन के प्रयास करना आदि ऐसी समस्याएं हैं जिनका हल यदि शीघ्र ही नहीं निकाला गया तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ साथ अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी विपरीत रूप से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगी।

प्राचीन भारत के इतिहास में मुद्रा स्फीति का जिक्र नहीं

प्राचीन भारत के इतिहास में मुद्रा स्फीति जैसी परेशानियों का जिक्र नहीं के बराबर मिलता है। भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुसार भारत में उत्पादों की उपलब्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता रहां है अतः वस्तुओं की बढ़ती मांग के स्थान पर बाजार में वस्तुओं की आपूर्ति ही अधिक रही है। ग्रामीण इलाकों में 50 अथवा 100 ग्रामों के क्लस्टर के बीच हाट (बाजार) लगाए जाते थे जहां स्थानीय स्तर पर निर्मित वस्तुओं/उत्पादों/खाद्य पदार्थों को बेचा जाता था। स्थानीय स्तर पर निर्मित की जा रही वस्तुओं को स्थानीय बाजार में ही बेचने से इन वस्तुओं के बाजार मूल्य सदैव नियंत्रण में ही रहते थे। अतः वस्तुओं की मांग की तुलना में उपलब्धता अधिक रहती थी। कई बार तो उपलब्धता का आधिक्य होने के चलते इन वस्तुओं के बाजार में दाम कम होते पाए जाते थे। इस प्रकार मुद्रा स्फीति जैसी समस्याएं दिखाई नहीं देती थीं। जबकि वर्तमान में, विभिन्न देशों के बाजारों में  विभिन्न उत्पादों की उपलब्धता पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है, इन वस्तुओं की मांग बढ़ने से इनकी कीमतें बढ़ने लगती हैं, और, इन कीमतों पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से यह प्रयास किया जाने लगता है कि किस प्रकार इन वस्तुओं की मांग बाजार में कम की जाय, इसे एक नकारात्मक निर्णय ही कहा जाना चाहिए।

वैश्विक स्तर पर अर्थशास्त्र के वर्तमान सिद्धांत (मॉडल) विभिन्न प्रकार की आर्थिक समस्याओं को हल करने के संदर्भ में बोथरे साबित हो रहे हैं। इसलिए अमेरिकी एवं अन्य विकसित देशों के अर्थशास्त्री आज साम्यवादी एवं पूंजीवादी सिद्धांतों (मॉडल) के स्थान पर वैश्विक स्तर पर आर्थिक क्षेत्र में आ रही विभिन्न समस्याओं के हल हेतु एक तीसरे रास्ते (मॉडल) की तलाश करने में लगे हुए हैं और इस हेतु वे भारत की ओर बहुत आशाभारी नजरों से देख रहे हैं। प्राचीन भारतीय आर्थिक दर्शन इस संदर्भ में निश्चित ही वर्तमान समय में आ रही विभिन्न प्रकार की आर्थिक समस्याओं के हल में सहायक एवं लाभकारी सिद्ध हो सकता है।


Spread the love! Please share!!
Prahlad Sabnani

Shri Prahlad Sabanani is a distinguished and experienced personality in the Indian banking sector, having served in various significant positions at the State Bank of India for 40 years. He retired as Deputy General Manager from the Corporate Centre of the State Bank of India in Mumbai. His three books—World Trade Organization: Impact on Indian Banking and Industry, Banking Today, and Banking Update—are highly acclaimed. He is also a prolific writer on economic and social issues of national importance.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!