खूबसूरत कश्मीर की खूनी दास्तान

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कश्मीर जिसे कभी धरती का स्वर्ग कहा जाता था, आज आतंक की काली छाया में कराह रहा है। बर्फ से ढकी पहाड़ियों, झीलों में तैरती शिकारे की शांति और जाफरानी हवा में महकती घाटी आज बारूद की गंध से भरी है। पहलगाम, जो पर्यटकों के दिलों की धड़कन हुआ करता था, अब आतंक के बंदूकों की गर्जना से गूंज उठा है। 28 मासूम जानें एक ही झटके में लील ली गईं। इस घटना ने न केवल हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया, बल्कि यह भी दर्शाया कि कश्मीर की राहें अब भी कांटों से भरी हैं। अनुच्छेद 370 के हटने के बाद जब लगा था कि कश्मीर अब विकास और शांति के पथ पर अग्रसर होगा, तभी आतंक का यह काला चेहरा फिर सामने आ खड़ा हुआ। प्रश्न उठता है कि कब तक यह खूबसूरत वादी खून के आँसू बहाती रहेगी?

कश्मीर में आतंकवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :

कश्मीर  जहाँ कभी सिर्फ वादियों की खामोशी और झीलों की शांति बसी थी, 1980 के दशक के बाद आतंकवाद की चपेट में आ गया। इस कालखंड में पाकिस्तान प्रायोजित उग्रवादियों ने घाटी में कट्टरपंथी विचारधारा का बीज बोना शुरू किया। धार्मिक उन्माद और अलगाववादी सोच को हवा दी गई, जिससे कश्मीर के युवाओं को यह भ्रमित कर भड़काया गया कि भारत उनका दमनकारी है और पाकिस्तान उनका संरक्षक। इस भ्रामक प्रचार के प्रभाव में आकर अनेक युवा बंदूकें उठाने लगे और ‘जिहाद’ के नाम पर हिंसा फैलाने लगे। यह सब कुछ उस ज़मीन पर हुआ जो कभी सूफियों और संतों की सांझी विरासत की मिसाल हुआ करती थी।
1990 के दशक में आतंकवाद ने विकराल रूप ले लिया। सबसे भयावह दृश्य तब देखने को मिला जब सैकड़ों कश्मीरी पंडितों को जान बचाकर घाटी से पलायन करना पड़ा। यह पलायन केवल एक सांस्कृतिक समूह का विस्थापन नहीं था, बल्कि कश्मीर की साझी संस्कृति पर एक करारा आघात था। उस दौर में मुठभेड़ों, बम धमाकों और अपहरणों की घटनाएँ आम हो गई थीं। भारत सरकार और सुरक्षाबलों ने भरपूर प्रयास किए, मगर स्थायी समाधान बना रहा, कभी राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में, तो कभी स्थानीय समर्थन के न मिलने के कारण।

अनुच्छेद 370 के निरसन का प्रभाव  :

 5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया। जम्मू-कश्मीर से उसका विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बाँट दिया गया। सरकार का तर्क था कि यह कदम आतंकवाद, अलगाववाद और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की दिशा में निर्णायक होगा। प्रारंभ में कठोर सुरक्षा उपाय किए गए, इंटरनेट बंद कर दिया गया, नेताओं को नजरबंद किया गया और जनसभाओं पर रोक लगाई गई। घाटी में कुछ समय के लिए अपेक्षाकृत शांति बनी रही।
हालाँकि, जैसे-जैसे समय बीता और जनजीवन सामान्य होता गया, छिटपुट आतंकी हमलों ने फिर सिर उठाना शुरू कर दिया। यह स्पष्ट हो गया कि केवल संवैधानिक बदलाव काफी नहीं हैं आतंकवाद की जड़ें कहीं गहरी हैं और समाधान केवल सुरक्षा के सहारे संभव नहीं, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक स्तर पर भी लड़ाई लड़नी होगी। कश्मीर को फिर से अपने मूल रूप में लाने के लिए बहुआयामी प्रयासों की आवश्यकता है।

आतंकवाद के पीछे के मुख्य कारण : 

1. पाकिस्तान का हस्तक्षेप: अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को घेरने की कोशिश
पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे को दशकों से अपनी विदेश नीति का केन्द्रीय बिंदु बना रखा है। वह समय-समय पर संयुक्त राष्ट्र, इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) और अन्य वैश्विक मंचों पर इसे उठाकर भारत पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने का प्रयास करता है। हालांकि अधिकांश देश अब कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला मानते हैं, लेकिन पाकिस्तान की कोशिशें थमी नहीं हैं। इससे अधिक चिंताजनक बात यह है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI अब भी सीमा पार आतंकवाद को बढ़ावा देती है। वह आतंकी संगठनों जैसे जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और हिज्बुल मुजाहिदीन को प्रशिक्षण, हथियार और फंडिंग उपलब्ध कराकर भारत विरोधी गतिविधियों को हवा देती है। सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफार्मों के माध्यम से कश्मीर के युवाओं को बरगलाने की रणनीति अब और अधिक परिष्कृत हो गई है।
2. स्थानीय असंतोष: कट्टरपंथ की ओर धकेलता मनोविज्ञान
कश्मीर में वर्षों से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक विषमताएँ युवाओं को आतंक की ओर धकेलने में सहायक रही हैं। बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, विकास की असमानता और प्रशासन के प्रति अविश्वास ये सभी कारक युवाओं को असंतोष से भर देते हैं। जब राज्य या केंद्र सरकार की योजनाएं ज़मीन पर लागू नहीं होतीं या उनका लाभ वास्तविक पात्रों तक नहीं पहुँचता, तब समाज में निराशा का वातावरण पनपता है। इस परिस्थिति में जब आतंकी संगठन उन्हें ‘सम्मान’, ‘उद्देश्य’ और ‘बदलाव’ के झूठे सपने दिखाते हैं, तो कई युवा इस भ्रम में आ जाते हैं। यह कट्टरपंथ धीरे-धीरे समाज में हिंसा और विभाजन का बीज बोता है।
3. प्राकृतिक एवं भौगोलिक चुनौती: दुर्गम सीमाओं की जटिलता
कश्मीर की भौगोलिक बनावट भारत के सुरक्षा बलों के लिए एक बड़ी चुनौती है। बर्फीली चोटियाँ, घने जंगल, और ऊँचाई पर बसी बस्तियाँ सीमापार निगरानी को कठिन बना देती हैं। LOC (लाइन ऑफ कंट्रोल) पर स्थित गाँवों के रास्ते से कई बार आतंकी आसानी से घुसपैठ कर जाते हैं। मौसम की प्रतिकूलता और संचार की बाधाएँ इस निगरानी को और भी जटिल बना देती हैं। हालांकि आधुनिक तकनीक जैसे सैटेलाइट सर्वे, ड्रोन और मोशन डिटेक्शन उपकरण का प्रयोग हो रहा है, फिर भी हर प्रवेश मार्ग पर सख्त नियंत्रण कायम करना एक सतत और कठिन प्रक्रिया बनी हुई है।
4. स्थानीय समर्थन की कमी: सुरक्षा तंत्र की कमजोर कड़ी
किसी भी आतंकवाद-विरोधी अभियान की सफलता जनता के सहयोग पर निर्भर करती है। कश्मीर में अनेक बार यह देखा गया है कि जब सुरक्षा बल किसी अभियान को अंजाम देते हैं, तो कुछ स्थानीय लोग प्रतिरोध करते हैं या पत्थरबाज़ी करते हैं। इससे न केवल अभियान में बाधा आती है, बल्कि सुरक्षा बलों को अनावश्यक हिंसा का सहारा लेना पड़ता है, जिससे और अधिक असंतोष जन्म लेता है। इस चक्र को तोड़ना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए संवाद, जागरूकता और प्रशासनिक विश्वास बहाली की आवश्यकता है। यदि स्थानीय समाज आतंक के विरुद्ध स्पष्ट रुख अपनाए और सुरक्षा एजेंसियों को सूचनाएँ दे, तो आतंकी नेटवर्क को तोड़ना संभव हो सकेगा।
5. पहलगाम हमला और इसके संकेत: सॉफ्ट टारगेट्स पर बढ़ता खतरा
पहलगाम, कश्मीर घाटी का एक सुंदर, शांत और विश्वविख्यात पर्यटन स्थल है। वर्षों से यहाँ लाखों पर्यटक आते रहे हैं, जिससे न केवल राज्य की अर्थव्यवस्था को लाभ हुआ, बल्कि घाटी के प्रति देश और विश्व में सकारात्मक धारणा बनी। हालिया आतंकी हमला न केवल निर्दोष नागरिकों की जान लेने का प्रयास था, बल्कि इसकी गूढ़ रणनीति भी स्पष्ट है, कश्मीर को असुरक्षित दर्शाना, भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करना, और स्थानीय पर्यटन एवं रोजगार को ध्वस्त करना। यह हमला यह भी दर्शाता है कि आतंकवादी अब सैन्य ठिकानों या बड़े सुरक्षा प्रतिष्ठानों की बजाय ‘सॉफ्ट टारगेट्स’ जैसे पर्यटक, गैर-कश्मीरी मज़दूर और छोटे व्यापारी को निशाना बना रहे हैं। इसका उद्देश्य डर और भ्रम का वातावरण बनाना है, ताकि विकास की गति रुके और कश्मीर फिर से हिंसा की गिरफ्त में आ जाए।

कैसे ख़तम होगा आतंकवाद?

कश्मीर की समस्या केवल आतंकवाद और अलगाववाद तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक समग्र सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक चुनौती है, जिसका समाधान केवल सैन्य बल या कठोर नीतियों से संभव नहीं। इसके लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें सुरक्षा के साथ-साथ सामाजिक समावेश, आर्थिक अवसर, राजनीतिक भागीदारी और सांस्कृतिक पुनर्जीवन शामिल हो।
1. सुरक्षा ढांचे का आधुनिकीकरण: नवाचार की ज़रूरत
कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्र में सुरक्षा केवल हथियारबंद बलों की उपस्थिति तक सीमित नहीं रह सकती। बदलते समय और आतंकवाद के नए स्वरूप को देखते हुए, हमें निगरानी और प्रतिक्रिया की प्रणाली को आधुनिक बनाना होगा। ड्रोन तकनीक, सैटेलाइट इमेजिंग, थर्मल स्कैनिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित निगरानी प्रणाली—इन सभी का समुचित उपयोग आतंकवाद की शुरुआती पहचान और रोकथाम में सहायक हो सकता है। साथ ही, साइबर इंटेलिजेंस और डार्क वेब पर निगरानी जैसे उपाय आतंकी फंडिंग और भर्ती नेटवर्क को निष्क्रिय कर सकते हैं।
2. युवाओं को मुख्यधारा से जोड़ना: शिक्षा और रोजगार की चाबी
कश्मीर के युवाओं के हाथ में जब बंदूक की जगह किताब और कलम आएगी, तभी घाटी में स्थायी शांति संभव होगी। आज की आवश्यकता है कि युवाओं को सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर दिया जाए। इसके लिए स्टार्टअप योजनाएं, स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम, पर्यटन क्षेत्र में प्रशिक्षण, कृषि आधारित उद्योग, हस्तशिल्प को बढ़ावा, और डिजिटल सेवाओं से जुड़ी नौकरियाँ सृजित की जानी चाहिए। इससे न केवल युवाओं का आर्थिक सशक्तिकरण होगा, बल्कि वे कट्टरपंथ की राह से भी दूर रहेंगे।
3. संवाद और सांस्कृतिक पुनर्जागरण: ‘कश्मीरियत’ की पुनर्स्थापना
कश्मीर की आत्मा उसकी ‘कश्मीरियत’ में निहित है—जो सहिष्णुता, विविधता और मेल-मिलाप की संस्कृति को दर्शाती है। बीते दशकों में यह भावना विस्मृत हो गई है। उसे पुनर्जीवित करना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए राज्य सरकार और नागरिक संगठनों को स्थानीय पर्वों, सूफी संगीत, कला, हस्तशिल्प मेलों, कवि सम्मेलनों और सांस्कृतिक उत्सवों का आयोजन करना चाहिए। इससे समाज में मेल-जोल बढ़ेगा, युवाओं को अपनी जड़ों से जोड़ने का अवसर मिलेगा और आतंकवाद की कट्टर विचारधारा को चुनौती मिलेगी।
4. पाकिस्तान को बेनकाब करना: वैश्विक स्तर पर सशक्त रणनीति
भारत को पाकिस्तान की दोहरी नीति—जहां वह एक ओर शांति की बात करता है और दूसरी ओर आतंकवाद को समर्थन देता है—को वैश्विक मंचों पर लगातार उजागर करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र, G-20, SCO जैसे मंचों पर पाकिस्तान की भूमिका को प्रमाण सहित सामने लाना और FATF जैसे संस्थानों में उसकी निगरानी बनाए रखना आवश्यक है। इसके साथ ही, भारत को सीमा प्रबंधन में तकनीकी दक्षता और राजनयिक संतुलन बनाए रखना होगा ताकि क्षेत्रीय स्थिरता बनी रहे।
5. निष्पक्ष शासन और पारदर्शी प्रशासन: विश्वास की बहाली
कश्मीर में दशकों से चली आ रही प्रशासनिक उदासीनता और भ्रष्टाचार ने स्थानीय जनता के विश्वास को गहरा आघात पहुँचाया है। इसे पुनः प्राप्त करने के लिए ई-गवर्नेंस को व्यापक स्तर पर लागू करना चाहिए। लाभार्थी योजनाओं की निगरानी, ऑनलाइन शिकायत निवारण तंत्र, ग्राम स्तर पर पंचायत सशक्तिकरण और पारदर्शी भर्ती प्रक्रिया जैसे उपाय प्रशासनिक प्रणाली को जनता के प्रति जवाबदेह बनाएँगे। जब आम नागरिक यह देखेगा कि शासन निष्पक्ष और संवेदनशील है, तो उसका विश्वास धीरे-धीरे लौटेगा।
6. स्थानीय नेतृत्व: विकास और संवेदनशीलता का समन्वय
कश्मीर के नेताओं को अब अपनी भूमिका आत्ममंथन के साथ पुनर्परिभाषित करनी चाहिए। वे यदि अपने राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर शांति, समावेश और विकास के लिए कार्य करें, तो समाज में सकारात्मक संदेश जाएगा। ज़मीनी स्तर पर जनसंपर्क बढ़ाना, युवाओं से संवाद, विकास योजनाओं की निगरानी और सांप्रदायिक सौहार्द्र को बढ़ावा देना—इन कार्यों में स्थानीय नेताओं को अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए।
7. मीडिया और शिक्षा: नई पीढ़ी के मानस का निर्माण
मीडिया को चाहिए कि वह सनसनी फैलाने की बजाय समाधानात्मक पत्रकारिता को बढ़ावा दे। घाटी के सकारात्मक प्रयासों, शांति की कोशिशों और युवाओं की उपलब्धियों को सामने लाना मीडिया की ज़िम्मेदारी है। वहीं शिक्षा क्षेत्र में समावेशी दृष्टिकोण, आलोचनात्मक सोच, सहिष्णुता, और भारतीयता के व्यापक भाव को पाठ्यक्रमों में समाहित करना होगा। इससे भावी पीढ़ी में कट्टरता के विरुद्ध बौद्धिक ढाल विकसित होगी।
8. आम नागरिकों की सहभागिता: सामाजिक सुरक्षा का आधार
आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने के लिए समाज की साझेदारी अत्यंत आवश्यक है। स्थानीय निवासी यदि संदिग्ध गतिविधियों की जानकारी समय पर दें, समाज में भाईचारे का वातावरण बनाए रखें और पीड़ितों के साथ खड़े हों, तो आतंकवादी नेटवर्क कमजोर होगा। सामाजिक संस्थाएँ, महिला समूह, युवा मंडल और धार्मिक नेताओं को भी इस लड़ाई में भागीदार बनाना चाहिए।
9. आशा की ओर बढ़ते कदम: एक संभावनाशील भविष्य
पिछले कुछ वर्षों में घाटी में बुनियादी ढांचे में व्यापक सुधार देखने को मिला है। बेहतर सड़कें, इंटरनेट कनेक्टिविटी, बिजली की उपलब्धता, और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ है। स्कूली नामांकन में वृद्धि, खासकर बालिकाओं की भागीदारी, कश्मीर में बदलते सामाजिक परिदृश्य की संकेतक है। पर्यटक एक बार फिर घाटी की वादियों में लौटे हैं, जो कि विश्वास और शांति का प्रतीक है।

कश्मीर में आतंकवाद के उन्मूलन के लिए सरकारी प्रयास: 

1. सुरक्षा और सैन्य आयाम:
आतंकवाद से लड़ने के लिए सरकार ने सैन्य रणनीति को प्राथमिकता दी। ऑपरेशन ऑल आउट, सर्जिकल स्ट्राइक (2016), और आतंकी ठिकानों पर बालाकोट एयर स्ट्राइक (2019) जैसे निर्णायक कदम उठाए गए। नियंत्रण रेखा पर बाड़बंदी और इलेक्ट्रॉनिक निगरानी प्रणाली को सशक्त किया गया। आतंकियों की घुसपैठ रोकने के लिए सीमा सुरक्षा बल, सेना, CRPF और जम्मू-कश्मीर पुलिस के बीच सामूहिक अभियान चलाए गए। स्थानीय आतंकियों के आत्मसमर्पण को प्रोत्साहित करने के लिए पुनर्वास नीति भी अपनाई गई।
2. संवैधानिक और कानूनी आयाम:
2019 में अनुच्छेद 370 और 35A को हटाकर जम्मू-कश्मीर को संविधान की समग्रता में शामिल किया गया। इससे एक राष्ट्र–एक कानून की अवधारणा को बल मिला। राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2019 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया गया। साथ ही आतंकवादियों के खिलाफ UAPA (Unlawful Activities Prevention Act) और NIA को अधिक अधिकार देकर आतंक-वित्तपोषण और नेटवर्किंग पर प्रहार किया गया।
3. राजनीतिक आयाम:
2014 के बाद से सरकार ने मुख्यधारा की लोकतांत्रिक राजनीति को सशक्त बनाने के लिए पंचायत और ब्लॉक स्तर पर चुनाव कराए। इससे स्थानीय भागीदारी बढ़ी और अलगाववादी तत्वों की पकड़ कमजोर हुई। DDC (जिला विकास परिषद) चुनावों में बड़ी संख्या में लोगों की भागीदारी सरकार की नीति में विश्वास का संकेत बनी।
4. कूटनीतिक प्रयास:
भारत ने वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद के समर्थन को उजागर किया। संयुक्त राष्ट्र, G20, और FATF में भारत की सक्रियता ने पाकिस्तान पर वैश्विक दबाव बढ़ाया। जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित करवाना इस कूटनीतिक सफलता का उदाहरण है।
5. आर्थिक और विकासपरक पहलें:
प्रधानमंत्री विकास पैकेज (PMDP), औद्योगिक प्रोत्साहन नीतियाँ, और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएँ जैसे कि रेलवे, सड़क, और पुल निर्माण कार्यों से युवाओं को रोज़गार और आशा मिली। शिक्षा, स्वास्थ्य, और पर्यटन को प्रोत्साहन देकर घाटी को विकास की मुख्यधारा में लाया गया।
6. सूचना और साइबर आयाम:
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और सोशल मीडिया का उपयोग कर सरकार ने आतंकियों के प्रचार को नियंत्रित किया। अफवाहों को रोकने के लिए समय-समय पर इंटरनेट पर सीमित प्रतिबंध लगाए गए। रेडियो, टेलीविज़न, और मोबाइल एप्लिकेशनों के माध्यम से जनजागरूकता बढ़ाई गई।
7. सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आयाम:
कट्टरपंथ को रोकने के लिए धार्मिक नेताओं और मदरसों के साथ संवाद स्थापित किया गया। युवाओं को खेल, संस्कृति, और रोजगार से जोड़ने के लिए “मिशन यूथ”, “हिम्मत” और “उम्मीद” जैसी योजनाएँ चलाई गईं। पत्थरबाजी की घटनाओं में शामिल युवाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष पुनर्वास योजनाएं चलाई गईं।
8. पुनर्वास और शांति स्थापना:
कश्मीरी पंडितों की वापसी और पुनर्वास को लेकर भी सरकार सक्रिय हुई। नई पुनर्वास नीति के तहत आवास, सुरक्षा और शिक्षा की गारंटी देने के प्रयास हुए। आतंक प्रभावित परिवारों के लिए राहत योजनाएं लागू की गईं।
9. सूचना संग्रहण और विश्लेषण:
NATGRID, IB और NTRO जैसे संगठनों को तकनीकी रूप से सशक्त बनाकर आतंकी गतिविधियों की समय रहते पहचान करने की प्रणाली बनाई गई। AI आधारित सर्विलांस और ड्रोन निगरानी से आतंकियों की गतिविधियों पर नज़र रखी गई।
10. पड़ोसी राज्यों और अंतर-राज्यीय समन्वय:
पंजाब, हिमाचल और दिल्ली जैसे पड़ोसी राज्यों में कश्मीर से जुड़े आतंकी नेटवर्क और वित्त पोषण के स्रोतों को खत्म करने हेतु विशेष जांच एजेंसियाँ गठित की गईं।
यदि बहुस्तरीय और दीर्घकालिक रणनीतियों को लागू किया जाए, स्थानीय जनता का विश्वास जीता जाए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की साजिशों को विफल किया जाए, तो आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंका जा सकता है। कश्मीर को केवल सुरक्षा से नहीं, बल्कि विश्वास, विकास और संवाद से जीतना होगा। यही भारत की असली विजय होगी। यदि यही प्रवृत्ति जारी रही और उपर्युक्त सुधारों को नीतिगत समर्थन मिला, तो कश्मीर आने वाले वर्षों में केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि शांति, सौहार्द और साझेदारी का प्रतीक बन सकता है, जहाँ बंदूकें नहीं, बल्कि बांसुरी की धुनें सुनाई देंगी और जहाँ डर नहीं, बल्कि उम्मीदें घर बनाएंगी।

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Nripendra Abhishek Nrip

Nripendra Abhishek Nrip is a research student and a prolific writer on contemporary issues, contributing to leading newspapers and competitive magazines. His analytical insights cover a wide spectrum of current affairs, governance, and policy matters. With a keen eye on emerging trends, he brings depth and clarity to complex socio-political and economic discussions.

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