यदि हम भारत को महाशक्ति बनाने की परिकल्पना करते हैं, तो हमें उसकी बुनियाद में केवल आर्थिक, तकनीकी या सैन्य विकास ही नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्रजीवन की उन्नति को देखना होगा। यह उन्नति केवल बुद्धि और श्रम के बल पर नहीं, बल्कि उस अदम्य आत्मबल और अनुशासन के माध्यम से संभव होगी, जो खेलों के द्वारा विकसित होता है।
हमारा प्राचीन भारत केवल योग और तप का केंद्र नहीं था, अपितु युद्धकला, शारीरिक दक्षता और विविध प्रकार की खेलकूद परंपराओं का भी उद्गम स्थल था। आज जब भारत आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर है, तब खेलों को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चरित्र निर्माण का एक सशक्त माध्यम मानकर आगे बढ़ना होगा।
खेल: केवल प्रतियोगिता नहीं, चरित्र निर्माण की पाठशाला
यदि खेलों को केवल पदक जीतने तक सीमित कर दिया जाए, तो यह एक संकीर्ण दृष्टिकोण होगा। खेल केवल प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि व्यक्तित्व और राष्ट्रनिर्माण का प्रमुख आधार है। एक खिलाड़ी जब मैदान में उतरता है, तो वह केवल व्यक्तिगत विजय के लिए नहीं खेलता, बल्कि वह अपने भीतर अनुशासन, परिश्रम, धैर्य और राष्ट्रभक्ति जैसे मूल्यों को आत्मसात करता है। यह वही गुण हैं, जो किसी भी समाज और राष्ट्र को शक्ति प्रदान करते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण भी यही रहा है कि समाज का निर्माण केवल बौद्धिक विकास से नहीं, अपितु शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक उत्थान से होगा। संघ की शाखाओं में खेलों को अनिवार्य रूप से शामिल किया गया है, क्योंकि ये खेल केवल शरीर को नहीं, बल्कि मन और आत्मा को भी सशक्त बनाते हैं।
खेलों के विकास में भारतीयता का समावेश
आज जब हम खेलों में वैश्विक पहचान बना रहे हैं, तब हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि हमारी खेल नीति में भारतीयता का समावेश अनिवार्य है। पश्चिमी देशों की नकल मात्र से हम अपनी पहचान को सुदृढ़ नहीं कर सकते। खेलों को भारतीय परंपरा, योग, आयुर्वेद और संस्कारों से जोड़कर उन्हें स्वदेशी रंग में रंगना होगा।
स्वदेशी खेलों को पुनर्जीवित करना कबड्डी, खो खो, मलखंब और कुश्ती जैसे पारंपरिक खेल हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। इन खेलों को केवल ग्रामीण भारत तक सीमित न रखकर राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा देना चाहिए।
गांव गांव तक खेल सुविधाएँ यदि भारत को खेलों में विश्वगुरु बनाना है, तो सुविधाओं का विकेंद्रीकरण करना होगा। ओलंपिक विजेताओं का चयन केवल महानगरों से नहीं, बल्कि गाँवों और कस्बों से होना चाहिए, जहाँ वास्तविक प्रतिभाएँ जन्म लेती हैं।
संघ के खेल दर्शन से प्रेरणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविरों और शाखाओं में जो खेल खेले जाते हैं, वे केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि राष्ट्रसेवा, परिश्रम और बलिदान की भावना से जुड़े होते हैं। यही भावना यदि राष्ट्रीय खेल नीति का हिस्सा बने, तो हमारे खिलाड़ी केवल पदक विजेता ही नहीं, बल्कि राष्ट्रनायक भी बनेंगे।
खेल और राष्ट्र निर्माण का संबंध
विकसित भारत की परिकल्पना केवल आर्थिक आंकड़ों में प्रगति से नहीं, बल्कि नागरिकों के आत्मबल और संकल्पशक्ति से भी जुड़ी है। जब एक राष्ट्र खेलों में आगे बढ़ता है, तो वह केवल अपनी एथलेटिक क्षमता नहीं दिखाता, बल्कि यह सिद्ध करता है कि उसकी युवा शक्ति अनुशासित, परिश्रमी और मानसिक रूप से सुदृढ़ है।
प्रधानमंत्री मोदी जी के नेतृत्व में “खेलो इंडिया” और “फिट इंडिया” जैसे अभियान इस दिशा में एक क्रांतिकारी कदम हैं। परंतु खेलों के विकास को केवल सरकारी योजनाओं तक सीमित न रखकर इसे समाज के दायित्व के रूप में स्वीकार करना होगा। संघ की विचारधारा भी यही कहती है कि समाज जब स्वयं अपनी शक्ति को पहचानकर कार्य करता है, तब वह किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए खेलों को केवल एक सेक्टर के रूप में नहीं, बल्कि एक आंदोलन के रूप में देखना होगा। खेलों को हमारी शिक्षा व्यवस्था, सांस्कृतिक परंपरा और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया से जोड़ना होगा।
यदि हर विद्यार्थी, हर युवा, हर स्वयंसेवक और हर नागरिक अपने जीवन में खेलों की भावना को आत्मसात कर ले, तो भारत केवल खेलों में ही नहीं, बल्कि हर क्षेत्र में विश्वगुरु बनने की दिशा में अग्रसर होगा। यही “विकसित भारत” की सच्ची संकल्पना होगी।